पुरुषों नारी की ममता की
पुरुषों नारी की ममता की, नापो तो गहराई।
अपना हृदय गलाकर भी, उसने रसधार बहाई।।
जिसे कह दिया अपना उसको, फिर आजन्म निभाया।
न्यौछावर कर दिया सभी कुछ, कुछ भी नहीं बचाया।।
तन की है क्या बात? समर्पित, की मन की इच्छाएँ।
आत्मा तक कह उठी कि अगले, जन्म तुम्हें फिर पाएँ।।
दिव्य भावनाओं की प्रतिमा ही, है नारी बन आई।।
किया वही जिसके प्रति तुमको, आकर्षित भी देखा।
अपने प्रति कब खिची, प्राथमिकता की कोई रेखा।।
तुम्हें खिलाकर ही उसने खुद, सदा बाद में खाया।
शयन बाद में उठना पहले, यह नित- नियम बनाया।।
धरती पर ही सृष्टि स्वर्ग की, उसने सहज रचाई।।
तुम्हें उदास तनिक भी देखा, अकुलाया उसका मन।
हंसी तुम्हारी अक्षय करने, लगा दिया सब जीवन।।
तुम्हें प्रसन्न देखना ही तो, उसका जीवन व्रत है।
तव हित साधन हो तो, उसका प्राण तलक प्रस्तुत है।।
यह साकार त्याग की मूरत, विधि ने एक बनाई।।
कभी तुम्हें मुस्कानें दीं, उसने आँसू जल पीकर।
कभी तुम्हें सुख- सुविधा दी, अपने घावों को सीकर।।
कभी सहचरी कभी अनुचरी, उसने खुद को माना।
बिना तुम्हारे उसने जग का, कोई सुख कब जाना?
नारी के इस आत्म- समर्पण, की समता कब पाई?