भटक रहा है जनम जनम से
भटक रहा है जनम जनम से, हंसा भूखा प्यासा रे।
तुम लाये जल घाट- घाट से, फिर भी रहा उदासा रे॥
मोती का अभिलाषी हंसा, कैसे पत्थर खाये।
मान सरोवर का वासी यह, कीचड़ में अकुलाये॥
तुमने इसे कषाय कल्मषों, में हर समय डुबाया।
दल- दल में बोलो फिर कैसे, करले हंसा वासा रे॥
नीर- क्षीर का ज्ञान इसे है, पर कैसे समझाये।
सद्गुण की पहचान इसे है, पर कैसे बतलाये॥
काम- क्रोध की कारा में, बन्दी इसे बनाया।
पराधीन वाणी से कैसे, सबका करे खुलासा रे॥
मिथ्या मीठी बात बनाना, कभी न इसको भाया।
कपट भरा व्यवहार न इसने, पल भर भी अपनाया॥
निर्मलता में पला इसी से, निर्मल दृष्टि बनाई।
समझा करता है यह केवल, निर्मल मन की भाषा रे॥
तन का हर आवरण रात- दिन, तुमने बहुत सजाया।
पर उसके भीतर का वासी, भूखा सदा सुलाया॥
स्वाभिमान का धनी हंस यह, कैसे भी रह लेगा।
फैलाएगा मगर न भूखा रहकर, कभी हताशा रे॥
तन के सुख के लिए न सारा जीवन यहाँ गँवाओ।
अन्तर्मन की तुष्टि- पुष्टि का भी कुछ पुण्य कमाओ॥
यह वह है अंगार, राख की परतें अगर हटा दी।
बन जायेगा यहीं धरा पर स्वर्णिम सूर्य प्रभाषा रे॥