भीड़ की तो कमी है कहाँ, काम के लोग मिलते नहीं।
प्रार्थी या प्रशंसक बहुत, राह पर साथ चलते नहीं॥
धर्म, शासक सभा सम्मेलन, सब जगह भीड़ ही भीड़ है।
आस्थाएँ कहीं भी नहीं, हर जगह स्वार्थ का नीड़ है॥
स्वार्थी भीड़ के शोर में, काम के स्वप्न पलते नहीं॥
भीड़ के भूरि उन्माद में, दिव्यतायें कहो क्या करें।
होश तक जिस हृदय हो न हो, दिव्य अनुदान कैसे झरे॥
सिन्धु हो सीपियों से भरा, रत्न सबमें निकलते नहीं॥
काम के रीछ वानर मिले, तो भले राक्षसी भीड़ से।
आदमी से जटायु भले, जो द्रवित हो उठे पीर से॥
त्याग से जीतते राम को, नाम से राम छलते नहीं॥
हर समर जीतते शूरमां, भीड़ इतिहास लिखती नहीं।
क्योंकि बलिदान की राह पर,देर तक भीड़ टिकती नहीं॥
और बलिदानियों के बिना, जीत के दीप जलते नहीं॥
लो सुनों आज आवाज वह, जो महाकाल ने बाँग दी।
भीड़ में पास किसके वह, जो महाकाल देखना है यही॥
कौन पाषाण है भीड़ में, जो कि बिल्कुल पिघलते नहीं॥
चल रही मन्थन क्रिया, शुद्ध मक्खन उछल आयेगा।
साधना की सघन ताप में, छाछ कैसे पिघल पायेगा॥
वेदना छल छलाये अगर, प्राण कैसे मचलते नहीं॥