बोल रहे राखी के धागे
बोल रहे राखी के धागे!
संस्कृति तड़प रही बन्धन में, छुड़ा सको तो आओ आगे।
बँधवा लो ये पावन धागे।
संस्कृति की महिमा मत भूलो, संस्कृति है सावित्री- सीता।
इससे ही सब ज्ञान मिला है, संस्कृति है रामायण- गीता॥
है अधीर, बन्धन से पीड़ित, धैर्य बँधाने आओ आगे॥
क्षुद्र स्वार्थ की जंजीरों से, देखो संस्कृति बँधी हुई है।
ऊँच- नीच की, भेदभाव की, दीवारों से घिरी हुई है॥
श्रेष्ठ भावना से दोनों को, तोड़ सको तो आओ आगे॥
अनगढ़ता से हुई प्रभावित, बुद्धि कुचक्र रचाती रहती।
शक्ति लगी है उग्रवाद में, सम्पति व्यसन बढ़ाती रहती॥
इन सबको शुभ दिशा चाहिए, दिखा सको तो आओ आगे॥
हृदय हीनता भरी तपन से, उसे पसीना छूट रहा है।
संवेदन की रस धारा बिन, गला रूँधा है, सूख रहा है॥
उसको निर्मल प्यार चाहिए, पिला सको तो आओ आगे॥
बातों से सबने बहलाया, किन्तु कर्म से कतराते हैं।
सब समर्थ होकर भी देखो, कैसे कायर बन जाते हैं॥
बलिदानी उत्साह चाहिए, जगा सको तो आओ आगे॥