माँ की सेवा को निकले
माँ की सेवा को निकले हम, घर- घर युग सन्देश सुनाएँ।
सादर सबको आवाहन है, साथ हमारे आप भी आएँ॥
जन्म जहाँ पर हमने पाया, अन्न जहाँ का हमने खाया।
तन पर जिसके वस्त्र संजोये, ज्ञान मिला धन- धान्य कमाया॥
है जिसके उपकार हजारों, उसका कुछ तो कर्ज चुकाएँ॥
वैभव हम कितना ही पालें, तन बल जन बल लाख सम्भालें।
लेकिन चैन न लेने देंगी, धरती की शतरंजी चालें॥
क्षमताएँ गुमराह न हों अब, प्रज्ञा की नव ज्योति जगाएँ॥
मन्दिर मस्जिद या गुरुद्वारा, एक यही है सबका नारा।
अपने को इन्सान बनाओ, उज्ज्वल हो कर्मों की धारा॥
याद करे कल आने वाला, कुछ ऐसा जग में कर जाएँ॥
नाहं वसामि बैकुण्ठे, योगिनां हृदये न च।
मद्भक्ता यत्र गायन्ति, तत्र तिष्ठामि नारदः।।
भगवान कहते हैं कि हे नारद मेरा स्थाई निवास न बैकुण्ठ में है, न योगियों के हृदय में, किन्तु जहाँ मेरे भक्त- भक्तिपूर्वक गान करते हैं मैं वहाँ उपस्थित रहता हूँ।
- पद्म पुराण