माँ प्रज्ञा अवतरित हुई क्या
माँ प्रज्ञा अवतरित हुई क्या, सद्गुण का भण्डार मिल गया।
विकृतियों से क्लान्त मनुज को, संस्कृति का संसार मिल गया॥
फूटे स्रोत गुप्त वैभव के, पथ प्रशस्त नूतन वैभव के।
जगा सुप्त देवत्व मनुज का, कण- कण स्वर्ग धरा की रज का॥
परिवर्तन के महापर्व को, अब सुदृढ़ आधार मिल गया॥
श्रद्धा भक्ति हुलसती मन में, सेवा की तत्परता तन में।
मन में वह विश्वास बढ़ रहा, नित नूतन संकल्प कर रहा॥
अब श्रद्धा विश्वास युगल को,जन- जन में विस्तार मिल गया॥
चिंतन अब लोक मंगलोन्मुख है, चरित्र दिव्यता का आमुख है।
टलने लगा आस्था संकट, छलक उठा आशाओं का घट॥
स्वर्ग सृजन के दिव्य शिल्प को, अब तो और निराकार मिल गया॥
अब विभीषिकाओं के बादल, फैले नहीं सकेंगे आँचल।
माँ प्रज्ञा आलोक पिलाती, उकसाती प्राणों की बाती॥
स्नेह विहीन मनुष्य को अब तो, स्नेह झलकता प्यार मिल गया॥
समस्त स्वर, ताल, लय, छंद, गीत, मंत्र, स्वर चिकित्सा, राग, नृत्य, मुद्रा, भाव आदि सामवेद से निकले हैं।