तपकर तुम्हीं दोबारा
तपकर तुम्हीं दोबारा, गंगा उतार लाये।
घर- घर डगर- डगर में, सुविचार है बहाये॥
छल छद्म का धरा पर, जब ताप बढ़ रहा था।
युग कंस रावणों की, नवमूर्ति गढ़ रहा था॥
मानव शरीर बनकर, तब- तब तुम्हीं ही आये॥
दुष्वृत्तियाँ हटायी, कुविचार को मिटाया।
अज्ञान का खड़ा गढ़, निज ज्ञान से ढहाया॥
कंटक भरे पड़े जो, शुभ राह से हटाये॥
रवि बन प्रकाश बाँटा, शशि बन अमृत बहाया।
फिर अस्थि जाल अपना, युग ज्वाल में तपाया॥
युग यज्ञ में विहंस कर, निज सुख सुमन चढ़ाए॥
सर्वत्र सृष्टि भर में, सद्भाव भर दिए हैं।
सन्मार्गी बदलकर, मस्तिष्क कर दिए हैं॥
जीवन बनें परिष्कृत, वे मार्ग हैं बताए॥