थाली भर मैं लाई रे खींचड़ो
थाली भर मैं लाई रे खींचड़ो, उपर घी की वाटकी।
जीमो म्हारा श्याम धणी, जिमावे बेटी जाट की॥
बाबुल म्हारो गाँव गयो है, कुण जाणें कद आवेलो।
ऊँके भरोसे बैठ्यो रेहवे, भूखो ही मर जावेलो॥
आ थाने जिमाऊँ श्याम जी, खाले छाँछ री राबड़ी॥
बार- बार मैं मंदिर जुड़ती, बार- बार मैं खोलती।
क्यूँ ना जीमो क्यूँ ना बोलो, खड़ी- खड़ी मैं रोवती॥
थें जीमो तो जद मूँ जीमूँ ना मानू मैं लाख की॥
परदो करवो भूल गई हूँ, परदो फेर लगायो है।
धावलिया रे ओले बैठकर, श्याम खींचड़ो खायो है॥
भोला सा भक्ताँ सूँ कीनी, श्याम जीनी हाट की॥
भक्ति हो तो कर्मा जैसी, साँवलिया घर आयो है।
सोहनलाल लुहार जाट को, हरक- हरक जस आयो है॥
साँची भक्ति प्रभु से हो तो, मूरत बोले काठ की॥
हमारे साधु- संतों की संगीत साधना का ही यह प्रभाव था कि कबीर, सूर, तुलसी, मीरा, तुकाराम, नरसी मेहता आदि ऐसी कृतियाँ कर गए जो हमारे और संसार के साहित्य में सर्वदा ही अपना विशिष्ट स्थान रखेंगी। -डॉ. राजेन्द्र प्रसाद