तूफान आ रहे हैं तेवर
तूफान आ रहे है तेवर, बदल- बदलकर।
संक्रान्ति का समय है, चलना बहुत सम्भलकर॥
हिमखण्ड टूटने को हर पल मचल रहे हैं।
नदियाँ उफन रही है, और दिल दहल रहे हैं॥
संसार है सशंकित व्याकुल दुःखी बहुत है।
विस्फोट को विकल हर ज्वालामुखी बहुत है॥
बनने लगे न मुख से, लावा पिघल- पिघलकर॥
यह धूल के बवण्डर धूमिल डगर करेंगे।
ऊँचे भवन अनेकों खण्डहर स्वयं बनेंगे॥
जड़हीन भव्यताएँ पल भर नहीं टिकेंगी।
छल- छद्म की प्रथाएँ, कल फिर नहीं दिखेंगी॥
हर क्षुद्रता प्रकाशित, होगी निकल- निकलकर॥
अनगिन विटप गिरेंगे और धूल में मिलेंगे।
वटवृक्ष आँधियों में लेकिन नहीं हिलेंगे॥
हम साधना करें जो, हो आस्था अखण्डित।
हर पग सतर्क होवे, हों लोभ से न मण्डित॥
पछता सकें सुबह को, जिससे न हाथ मलकर॥
जो कुछ हुआ, व होगा, है योजना प्रभु की।
‘उज्ज्वल भविष्य’ की है, संकल्पना प्रभु की॥
संकीर्णता कहीं यदि अवरोध बन अड़ेगी।
तो दिव्य शक्ति उससे हो संगठित लड़ेगी॥
इससे स्वयं मिटेंगी, दुष्प्रवृत्तियाँ कुचलकर॥
कल भोर में तिमिर का, स्वयमेव अंत होगा।
सूरज अनन्त होगा, शाश्वत बसन्त होगा॥
फिर सतयुगी सुहाना वातावरण रहेगा।
सम्पूर्ण विश्व व्याकुल इसकी शरण गहेगा॥
सद्वृत्तियाँ बढ़ेंगी, इसकी ही गोद पलकर॥