तुम्हारा हर निमिष का साथ
तुम्हारा हर निमिष का साथ हम कैसे भुलायें?
वरद् आशीष के वे हाथ हम कैसे भुलायें?
भुला दें किस तरह आँखें झुकी जो लेखनी पर।
बहुत अपनत्व में डूबी सरल वाणी तुम्हारी॥
अपरिचित भी अगर सम्पर्क में आता तुम्हारे।
उसे भी दृष्टि लगती खूब पहचानी तुम्हारी॥
बनी हर पल हमें जो प्रेरणा, उल्लास पावन।
तुम्हारी स्नेह भीगी बात हम कैसे भुलाएँ?
हमारा कंटकों के बीच डरकर डगमगाना।
तुम्हारा दौड़कर हमको तुरत उँगली थमाना॥
शिथिल- असहाय हमको देखकर निर्जन पथों पर।
बहुत भारी पड़े पत्थर स्वयं आकर उठाना॥
कृपा से जो तुम्हारी आज भी मिलती रही है।
सहज अनुदान की बरसात हम कैसे भुलाएँ?
तुम्हीं ने शूल के संग भी हमें हँसना सिखाया।
मिली जो जिन्दगी हम को उसे जीना सिखाया॥
सभी को प्यार औ सहकार का अमृत लुटाना।
जहर विद्वेष- ईर्ष्या का हमें पीना सिखाया॥
सहज संतोष की जो सम्पदा तुमसे मिली है।
बताओ वह अमर सौगात हम कैसे भुलाएँ?