देवसंस्कृति विश्व विद्यालय
देव संस्कृति विश्व विद्यालय प्रगति का द्वार है।
साधनों से दूर इसका, साधना आधार है॥
खो दिया हमने बहुत कुछ सभ्यता के नाम पर।
ध्यान कोई दे सका पल भर न दुष्परिणाम पर॥
संस्कृति पर सभ्यता इस भाँति हावी हो गई।
बात आत्मोत्थान की फिर निष्प्रभावी हो गई॥
फिर युवाओं में जगाना सांस्कृतिक सुविचार है॥
यह दिशा देगा स्वयं से ऊबते इन्सान को।
भोगवादी दलदलों में डूबते इन्सान को॥
तब चतुरता को न कोई भी प्रगति कह पाएगा।
तब अनास्था में न कोई आदमी रह पायेगा॥
आज हमको फिर बदल देना वही व्यवहार है॥
आदमी की दृष्टि में बदलाव आयेगा यहाँ।
श्रेष्ठ चिन्तन और सहज सद्भाव आयेगा यहाँ॥
क्योंकि यह संबद्ध है अध्यात्म की उस धार से।
घोर तप हैं फूल जिसके जो प्रवाहित प्यार से॥
युग मनीषी की यही संकल्पना साकार है॥
युग नई पीढ़ी नए अंदाज में फिर आयेगी।
सतयुगी वातावरण की प्रेरणा बन जाएगी॥
छात्र सेनानी बनेंगे सांस्कृतिक सत्क्रांति के।
दास वे होंगे नहीं संशय जनित दिग्भ्रांति के।
उस तरफ ही देखता सारा विकल संसार है॥