धर्म की स्वर ध्वजाएँ
धर्म की स्वर ध्वजाएँ उड़ाओ नहीं, कर्म में धर्म का ध्यान देते चलो।
विश्व रोता है ईमान जिन्दा नहीं, धर्म का ज्ञान है ध्यान जिन्दा नहीं।
लाश अपनी स्वयं ढो रहा आदमी, साँस चलती है इन्सान जिन्दा नहीं॥
उठ रहा है धुँआ बढ़ रही है घुटन, साँस रोके खड़े साधना के चरण।
ऐसे वातावरण के लिए कौन- सा, मुक्ति वरदान लाये हो देते चलो॥
शान्ति के गीत गाना बड़ा ही सरल, क्रान्ति के स्वर जगाना बड़ा ही सरल।
कर्म कुरुक्षेत्र में पाँव धरना कठिन, वाक जौहर दिखाना बड़ा ही सरल॥
कर उठे व्यञ्जना शुचि गिरा कर्म की, शान्ति के मर्म की क्रान्ति के धर्म की॥
चित्त डोले नहीं शब्द बोले नहीं, कर्म में वेद व्याख्यान देते चलो॥
धर्म धारा गया है हृदय में सदा, वह उतारा गया आचरण में सदा।
सिर्फ व्याख्यान से धर्म फैला नहीं, धर्म पीकर जिया जिन्दगी की सुधा॥
धर्म कहता है तुम धैर्य धारण करो, शान्ति से विघ्न सारे निवारण करो।
धर्म देता नहीं भीरुता को जगह, शौर्य का शक्ति का दान देते चलो॥
जो कि सूने क्षणों में सहारा बनें, डूबते के लिए जो किनारा बने।
हर भटकती नज़र को मिले रास्ता, घोर अँधियारे में ज्योति धारा बने॥
हारती साँस को दे सके चेतना, जो उठे पाँव को दे सके प्रेरणा।
मंजिलों को छुयें गीत को गुनगुना, हर अधर को मधुर गान देते चलो॥
तुम जहाँ पर जियो धर्म जीने लगे, बाँट दो तुम सुधा विश्व पीने लगे।
साथियों की यहाँ बाट जोहो नहीं, प्यार दो हर दुःखी को कि सीने लगे॥
अश्रु पोंछो किसी के तनिक आह भर, धर्म उतरे धरा पर नया रूप धर।
वेद की यह ऋचायें भुलाओ नहीं, टूटती साँस को प्राण देते चलो॥