दिव्य अनुदान देने
दिव्य अनुदान देने खड़े देवता,
है ललक किन्तु उपकार कैसे करें।
लोभ, मद, मोह की गन्दगी से भरे,
पात्र में वे विमल नीर कैसे भरें?
प्रभु- कृपा की सुगन्धें मिलेगी नहीं,
तीव्र दुर्गन्ध से हो अगर मन भरा।
खिल सकें स्वस्थ कैसे सुमन यदि रहे,
व्यर्थ की घास से पूर्ण उपवन भरा॥
कंकड़ों- पत्थरों का लिए बोझ हम,
अब उफनता हुआ ज्वार कैसे तरें॥
हम घिरे कामनाओं भरी भीड़ से,
हर समय नर्क की यातना सह रहे।
लोक- कल्याण की भावना के बिना,
एक विकराल दावाग्नि में दह रहें॥
सिर्फ अपने दुःखों से दुःखी जो रहें,
अन्य की वे हृदय पीर कैसे हरें॥
दिव्य अनुदान पाना अगर चाहते,
स्वच्छ पहले करें पात्र मन का स्वयं।
लोकहित के प्रबल ताप में हम सभी,
स्वार्थ अपना गला दें, मिटा दें अहं॥
स्वार्थ में श्रेष्ठ प्रतिभा सनी देखकर,
दीन असहाय अब धीर कैसे धरें॥