दुनियाँ बिगड़ गयी है
दुनियाँ बिगड़ गयी है, हर व्यक्ति रट लगाता।
लेकिन बिगड़ गया क्या, यह तो समझ न आता॥
धरती वही पुरानी, आकाश भी वही है।
वे ही हैं चाँद सूरज, बदलाव कुछ नहीं है॥
फिर क्या बिगड़ गया जो, हर व्यक्ति रट लगाता॥
जंगल, पहाड़, नदियाँ, झरने वही पुराने।
पशु, पक्षियों, मनुज के, तन भी नहीं बेगाने॥
दुनियाँ बिगड़ गई क्यों, कोई नहीं बताता॥
इसका रहस्य युग की, प्रज्ञा बता रही है।
जड़ आम आदमी को, दिखने न पा रही है॥
ऋषियों का दिव्य चिन्तन, ही मूल देख पाता॥
है तो वही नज़ारे, नजरें बदल गई है।
हैं सिन्धु तो वही पर, लहरें बदल गई है॥
उनका विषाक्त चिन्तन, टकराव है मचाता॥
चिन्तन बदल गया है, विकृत विचारणा से।
हर आम आदमी की, निज स्वार्थ साधना से॥
बोता मनुष्य जो कुछ, वह ही तो काट पाता॥
छल- छद्म ने मनुज का, चिन्तन चरित्र बदला।
विकृत विचार विष से, हर दृष्टिकोण बिगड़ा॥
बस स्वर्ग सी धरा को, यह ही नरक बनाता॥