यह राग द्वेष का समय नहीं
यह राग द्वेष का समय नहीं, दुखियों का दर्द मिटाता चल।
युग परिवर्तन की बेला में, सबको गले लगाता चल॥
पथ विहीन हो गई मान्यता, मर्यादायें भ्रष्ट हुईं।
आदर्श संकुचित हो गये, संस्कृतियाँ सब नष्ट हुयीं॥
लाठी जिसकी भैंस उसी की, यह चरितार्थ लगा होने।
पिता पुत्र घर करे मजूरी, लगे क्रूरता भी रोने॥
विश्व गुरु भारत की गुरुता, वापस इन्हें दिलाता चल॥
सिसकी, आह! मनुज की पीड़ा, का निर्माता स्वयं बने।
पीड़ा, दुःख, व्याधि, कष्टों के, तिमिर जाल है स्वतः बुने॥
अगर मुक्ति पाना चाहो तो, सेवाभाव निभाना होगा।
अपनालो हर दुःखी पीड़ित को, अपनी बुद्धि जगाना होगा॥
अपने ज्ञान वाटिका के, पुष्पों की गंध उड़ाता चल॥
करुण वेदना से क्रंदित, मानवता है चीत्कार उठी।
पालित बुद्धि से कष्ट विषम, अन्तर्मन भी सीत्कार उठी॥
उड़ते गुबार छल, कपट अनीति, हिंसा अरू अत्याचार के।
काम, क्रोध, मद, लोभ बने, जैसे हों ये व्यवहार के॥
महानिशा के इस घेरे में, दीपपुञ्ज फैलाता चल॥
नई दृष्टि की नई चेतना, नये भाव औ नये विचार।
पनप रही चहुँ ओर विश्व में, नूतन मानवता श्रृंगार॥
लोग सब समान अधिकारी, समता का ही भाव विवेक।
जाति, धर्म, क्षेत्र, भाषा क्या? पूरा विश्व बनेगा एक॥
सत्यं,शिवं,सुन्दरम के पथ,पर बस आगे कदम बढ़ाता चल॥