युग की पीर बुलाये
युग की पीर बुलाये, अब युग की पीर बुलाये।
पीड़ा को छलकाये मनुजता, पीड़ा को छलकाये॥
अन्धकार से बिलख उठी है, अब तो दशों दिशाएँ।
युग की पीड़ाएँ पीड़ा को तो आज रूलाएँ॥
जिनका हृदय निरा पत्थर हो, वे ही चुप रह पायें।
भाव शून्य हृदयों को कैसे, युग की पीर बतायें॥
संवेदनशीलों से ही अब, पीड़ा आश लगायें॥
चिन्तन और चरित्र सभी में, ऐसे स्वार्थ समाया।
स्वार्थ सिद्धि के लिए मनुज ने, है ईमान गँवाया।
स्वार्थी शोषण उत्पीड़न में, तनिक नहीं सकुचाया।
अपने सुख के लिए सभी के, सुख में आग लगाया॥
ऐसे में सर्वार्थ भावना, कहो कहाँ पर जाये॥
अब विश्वास आस्थाओं से, जन- जन डिगा हुआ है।
आदर्शों को छोड़ भोग के, हाथों बिका हुआ है॥
नैतिकता को छोड़ अनैतिक, सब ही होते जाते।
एक दूसरे को ठगने में, सब ही धोखा खाते॥
आज मनुज के बीच मनुज, शंका से देखा जाये॥
अगर स्वार्थ में लगे रहे, मानवता नहीं बचेगी।
स्वार्थ- वृत्ति तो बस विनाश की, दुनियाँ मात्र रचेगी॥
शिवि, दधीचि, गौतम, गाँधी की, याद करो गाथाएँ।
जनहिताय मर कर रच डाली, जिनने अमर कथाएँ॥
बलिदानों की परम्परा से, आओ हम जुड़ जायें॥
इस विभीषिका से लड़ने, साहस तो करना होगा।
सृजन सैनिकों नये सृजन हित, आगे बढ़ना होगा॥
संकल्प के चरण बढ़े तो, कुछ भी नहीं असम्भव।
हो सकता है इसी धरा पर, स्वर्ग लोक का उद्भव॥
क्यों करुणा का कण्ठ बिलखती, पीर नहीं पी पायें॥