शांति और संतोष छोड़
शांति और संतोष छोड़, मृग तृष्णा मत पालो।
बुन मकड़ी सा जाल,स्वयं को कैद न कर डालो॥
परम पिता ने स्वतंत्रता से युक्त किया तुमको।
जननी ने दे जन्म गर्भ से मुक्त किया तुमको॥
हो बन्धन से मुक्त गले में फंदे मत डालो॥
साँसों की निर्मल सरिता को गंदी नहीं करो।
लोभ, मोह के छल छद्मों में बन्दी नहीं करो॥
मुक्त धरा पर मुक्त गगन में मुक्ति गान गालो॥
बढ़ा महत्त्वाकाँक्षाएँ मत नींद हराम करो।
सादा- जीवन, उच्च- विचारों को आयाम करो॥
सादा रह लो सादा पहिनो सादा ही खालो॥
तृष्णाएँ उँगलियाँ पकड़कर पोंचा पकड़ेगी।
जितनी छूट मिलेगी उनको उतना जकड़ेगी॥
इन पर अकुंश रखकर भावी विपदाएँ टालो॥
शक्ति और क्षमताएँ अपने लिये नहीं केवल।
कई अशक्त अभाव ग्रसित हैं उनको दें संबल॥
जीवन अर्ध्य लोक मंगल की प्रतिमा पर ढालो॥
साधन धाम मोक्ष कर द्वारा जेल न बन जाये।
सुर दुर्लभ सम्पदा स्वार्थ का खेल न बन जाये॥
शोषित पीड़ित दीन जनों को भी देखो भालो॥