सुबह का बचपन हँसते देखा
सुबह का बचपन हँसते देखा, और दोपहर जवानी।
शाम बुढ़ापा रोते देखा, रात को खत्म कहानी॥
बचपन बेपरवाह है जिसमें, खेल कूद के मेले।
हाय जवानी अंधी होकर, प्यार की आग में खेले॥
वृद्धावस्था! तन काँपे जब, आवे याद पुरानी॥
इस जीवन में मूर्ख मन, आशा के महल बनाये।
धरा- धराया रह जाये, जब अंत बुलावा आये॥
पड़ जाती है आशाओं की, चिता पे आग लगाई॥
झूठी जग की माया है, और झूठा जग का सपना।
जिन पर मान तू करता है, वह कोई नहीं है अपना॥
गम क्यों करता है जीवन का, दुनियाँ आनी जानी॥