हुये विकारों से शापित
(धुन- उठो सुनो प्राची से उगते)
हुए विकारों से शापित जब, युग के राजकुमार।
द्रवित हो उठे युग भगीरथ, करने को उद्धार॥
अडिग हिमालय की गोदी में, आसन तभी जमाया।
त्रयतापों से मुक्ति दिलाने, तप से स्वयं तपाया॥
तपसी भागीरथ ने तपकर, वह करुणा छलकाई।
पिघल उठी हिमगिरि की छाती, गंगा बन बह आई॥
फूटी भागीरथ करुणा से,पतितपावनी धार॥
शिव संकल्पों के शिव ने फिर, धारण की वह धारा।
शापित युग को सद्चिन्तन का,फिर मिल गया सहारा॥
प्रज्ञा पतित पावनी बनकर, स्वयं धरा पर आई।
नहा ज्ञान गंगा में सबने, डुबकी खूब लगाई॥
जन मानस की मुक्ति बन गया यह, प्रज्ञा अवतार॥
जननी जनक आपसे पाकर, भी जो रहे अपावन।
कर न सके अपने तन मन का, परिशोधन प्रच्छालन॥
उनमें कैसे मनुज वेदना, के प्रति पीर जगेगी।
जिन्हें न अपने ही अन्तर की, पीड़ा जान पड़ेगी॥
संवेदित हो हृदय सुन सके, युग की करुण पुकार॥