साधक वह है जिसके द्वारा, खुद को ही साधा जाता है।
साधक का सतत साधना से, जीवन भर का ही नाता है॥
चिन्तन की मनोभूमि में ही, अँकुरित विचार हुआ करते।
जैसे विचार अँकुरित हुए, वैसे आचार हुआ करते॥
चिन्तन ही तो चरित्र बनकर, साधक व्यक्तित्व बनाता है॥
साधक चिन्तन का परिष्कार, सबसे पहले करना होगा।
साधना और स्वाध्याय नित्य हो, यही ध्यान धरना होगा॥
सद्गुरु के सद्चिन्तन द्वारा, सद्ज्ञान सहज ही पाता है॥
संयम सेवा द्वारा साधक, अपने चरित्र को गढ़ता है।
गुरु के निर्देशों का पालन, करता सद्पथ पर बढ़ता है॥
चिन्तन- चरित्र का परिष्कार, साधक को सिद्धि दिलाता है॥
सादा जीवन, ऊँचे विचार, जीवन साधक का परिचय है।
जनसेवा की ही साधों से, उसकी साँसों का परिचय है॥
उसके चिन्तन चरित्र द्वारा, हर व्यक्ति प्रेरणा पाता है॥
वह सहज द्रवित हो जाता है, दीन- दुखियों के क्रन्दन से।
मानव के पतन- पराभव से, मानवता के उत्पीड़न से॥
वह धर्म, राष्ट्र संस्कृति, समाज पर, जीवन सुमन चढ़ाता है॥
गायत्री की साधना अरे! साधक का सहजशिल्प करती।
होकर प्रसन्न माँ गायत्री, साधक का चरित्रकल्प करती॥
साधक की प्रज्ञा अरे! वेदमाता का ध्यान जगाता है॥