राधेश्याम तर्ज में गीत
लोभ-: धन साधन भोजन जर
धन साधन भोजन जर जमीन, होता है लोभ पदार्थों का।
इनका सीमित उपयोग ठीक, है लोभ कुबीज अनर्थों का॥
लोभी की ये गति होती है, ज्यों मछली फँसती काँटे में।
जालों में पक्षी फँसते हैं, सब ही रहते हैं घाटे में॥
मोह-: है मोह विकार प्रेम का ही
है मोह विकार प्रेम का ही, अपने पराये पर टिका हुआ।
है मोहग्रस्त यों दीन- दुःखी, जैसे ज्वारी हो बिका हुआ॥
यह बंधन इतना रोचक है, प्राणी सुख से बंध जाता है।
जन्मों- जन्मों तक कुढ़ता है, पर मुक्त नहीं हो पाता है॥
अहंता-: है अहं भाव तो अन्दर का है अहं भाव तो अंदर का, पर यह बेढब मायावी है।
यह लोभ मोह से मुक्त पुरुष, पर भी हो जाता हावी है॥
इसने जिसको जकड़ा उसको, साधक से राक्षस बना दिया।
आत्मिक- लौकिक उन्नति पाये, कितनों को नीचे गिरा दिया॥
दोहा- हीन स्वार्थ परता सदा, रचती क्लेश अनिष्ट।
लोभ, मोह अरू अहंता, इसके पुत्र बलिष्ट॥