मुक्तक-
गुरु चरणों से प्रीति बढ़ाकर, चरण बढ़ाना यदि आ जाये।
तो भटके अटके मानव का, प्रगति पन्थ फिर से खुल जाये॥
एक चरण पूरा होते ही, नये चरण को अपनायें हम।
तो इस छोटे से जीवन में, लक्ष्य अनश्वर पा जायें हम॥
गुरुवर! तुमने दिया हमें
गुरुवर! तुमने दिया हमें, ‘उज्ज्वल भविष्य’ का नारा।
डूब रही मानवता को यूँ तुमने आज उबारा॥
जब- जब मानवता पर बादल संकट के गहराए।
परमेश्वर मानव- तन धरकर, इसी भूमि पर आए॥
छँटे सभी घनघोर मेघ, कुछ ऐसी हवा चलाई।
यूँ अधर्म का नाश किया, फिर धर्म ध्वजा फहराई॥
परमेश्वर को राम, बुद्ध तक, जिस स्वरूप में पाया।
उसी रूप में फिर भक्तों ने गुरुवर तुम्हें निहारा॥
कर प्रयोग तन- मन पर तुमने, सब रहस्य पहचाने।
है शरीर अनमोल इसी में वैभव भरे खजाने॥
तन तो साधन है केवल, यह भेद हमें समझाया।
रहा अभागा जिसने जीवन अपने लिए गँवाया॥
तुमने जो कुछ कहा, स्वयं करके सबको दिखलाया।
कभी नहीं भूलेगी धरती, यह उपकार तुम्हारा॥
उमड़ अनास्था की आँधी ने घेरा इन्सानों को।
सिहर उठी थी मानवता लख भीषण तूफानों को॥
संस्कार से हीन हुए थे, घर परिवार हमारे।
दिशाहीन सब भटक रहे थे, बिल्कुल बिना सहारे॥
संस्कारों की परिपाटी फिर तुमने यहाँ चलाकर।
बचा लिया मिटने से प्रभुवर, यह अस्तित्व हमारा॥
भरी भीड़ में एकाकी, से सभी स्वयं को पाते।
रहे शेष धरती पर केवल क्षुद्र स्वार्थ के नाते॥
अनय और शोषण ने अपनी महाज्वाल फैलाई।
लोभ, मोह, मद ने मानव के बीच बना दी खाई॥
हे करुणा सागर हर मन में संवेदना जगाकर।
मरुथल बीज बहाई तुमने गंगा- सी रस धारा॥