कर ले युग निर्माण
कर ले युग निर्माण रे वन्दे, फिर अवसर नहीं पाएगा।
कर अपना निर्माण रे, वन्दे, फिर पीछे पछताएगा॥
हीरे सा मानव जीवन यह, मिट्टी मोल गँवा डाला।
भव सागर की इस नौका पर, बोझ पाप का भर डाला॥
स्वर्णिम स्वाति वृष्टि सा क्षण जो, सोकर व्यर्थ गँवाएगा॥
भेद रहा कथनी करनी में फिर, भी गुरु अनुदान मिला।
करता तोड़- फोड़ के धंधे, फिर भी तुझे सम्मान मिला॥
कालनेमि सा कर्म तेरा अब, स्वयं तुझे खा जाएगा॥
यह परिवर्तन की बेला है, तू भटका संसार में।
युग प्रज्ञा की चीख न सुनी, व्यस्त रहा घर- बार में॥
अब न बचेगा महाकाल से, यदि तू बदल नहीं जाएगा॥
ज्योति विचार क्रान्ति की फैली,तुम भी आलोकित करलो।
बहती ज्ञान गंगा की धारा, डुबकी एक लगा तुम लो॥
आज ज्ञान की गंगोत्री में, जो न स्वयं नहाएगा॥