जिन्दगी चार दिन की
जिन्दगी चार दिन की मेहमान है।
फिर भी जाता जुटाता सामान है॥
मोह इतना बड़ा, लोभ में तू पड़ा।
क्या हुआ है तुझे, भूत इतना चढ़ा॥
कौन किसका सगा, क्या यह ध्यान है॥
साथ जायेगा क्या, काम आयेगा क्या?
कौन ले जा सका, आज तक साथ क्या?
व्यर्थ ही तुझको झूठा गुमान है॥
पाप क्यों कर रहा, क्यों घड़ा भर रहा।
स्वार्थ के सब सगे, क्यों नशा चढ़ रहा॥
झूठ को सच कहना ही अज्ञान है॥
मोह ममता को तज! राम का नाम जप।
लोक सेवा से पायेगा, शान्ति सहज।
लोक सेवा ही जीवन की शान है॥
स्वर्गीय सौंदर्य का कोई साकार रूप और सजीव प्रदर्शन है, तो उसे संगीत ही होना चाहिए।
- रविन्द्र नाथ टैगोर