जिसने दीप जलाये जग में
जिसने दीप जलाये जग में, तिल- तिल जलकर ज्ञान के।
सौदागर हम स्वयं बन गये, उस संस्कृति की जान के॥
ऐसी भी कृतघ्नता कैसी, जिसने हमें प्रकाश दिया।
अपनी उस महान संस्कृति का, अपने हाथ विनाश किया॥
ऐसे तो आचरण न होते, समझदार इन्सान के॥
जिसने सुगढ़ बनाया गढ़कर, हम जैसे पाषाण को।
संस्कार दे ‘देव’ बनाया, इस अनगढ़ इन्सान को॥
काटे हाथ- पैर हमने ही, निर्माता भगवान के॥
विकृतियों के आघातों से, संस्कृति को विद्रूप किया।
संस्कृति की शालीन- सती को, वेश्या जैसा रूप दिया॥
बने दुःशासन, चीर उतारे, संस्कृति के सम्मान के॥
संस्कृति की हत्या करके हम, क्या जीवित रह पायेंगे।
इससे तो हम आत्मघात के, ही दोषी कहलायेंगे॥
शारीरिक भोगों के पीछे, शत्रु बने क्यों प्राण के॥
छोड़े भोगवाद को आओ! त्यागवाद को अपनायें।
कर सम्मान ‘देव- संस्कृति’ का, जगद्गुरु फिर कहलायें॥
यही सूत्र हैं, इसी धरती पर, आज स्वर्ग निर्माण के॥
‘संस्कृति- पुरूष’ पुकार रहा है, संस्कृति का सम्मान करें।
हम समाज, परिवार, व्यक्ति का, विकृतियों से त्राण करें॥
अग्रदूत हमको बनना है, नवयुग के अभियान के॥
मुक्तक- संस्कृति निष्ठा के बल पर ही, मानव सच्चा मानव है।
वरना वह पशु बन जाता है, हो जाता वह दानव है॥
दुर्गति से यदि बचना चाहो, संस्कृति का सम्मान करो।
करो अनुगमन ऋषि चरणों का, नवयुग का निर्माण करो॥