जीवन अर्पण का तुमको डर कैसा
रंग दे रंग दे रंग दे रंग दे, रंग दे बसन्ती चोला।
रंग दे रंग दे रंग दे, युग बसन्त रंग दे।।
रंग दे रंग दे रंग दे, युग बसन्त रंग दे।।
जीवन अर्पण का तुमको डर कैसा? बढ़ते जाना है, गढ़ते जाना है।
जब कदम बढ़ गये फिर रुकना कैसा? बढ़ते जाना है, गढ़ते जाना है।।
हम बदलेंगे युग बदलेगा, ये सारा जमाना कहता है।
भर जाती सबकी झोली है, खाली न कोई भी रहता है।।
जो युग ऋषि से जुड़ जायेगा, जीवन जगमग हो जायेगा।
दीवाली उसके जीवन में, दीपक बन जल दिखलायेगा।।
सरदार बन गये सर का डर कैसा? बढ़ते जाना है....।।
कष्टों में हँस दिखलाते जो, गुरुवर, को निकट वो पाते हैं।
खपते हैं गुरू के काम में जो, इतिहास पुरुष बन जाते हैं।।
फौलादी जिगर गुरुवर पे नज़र, वह युग सैनिक कहलाता है।
नस- नस में गुरु का नाम लिखा, जीवन जीकर दिखालाता।।
बढ़ गये कदम शिष्यों रुकना कैसा? बढ़ते जाना है....।।
घनघोर निशा भीषण गर्मीं, युग सैनिक कदम बढ़ायेंगे।
हो बाड़मेर या कारगील, वासन्ती ध्वज फहरायेंगे।।
जो देखा गुरुवर ने सपना, सच होगा उनका हर सपना।
चाहे अंगारों में कदम पड़े, चाहे पड़े हमें मरना खपना।।
फाँसी के फंदे से डरना कैसा? बढ़ते जाना है....।।