गीत माला भाग ९

नहीं मांगते राज्य स्वर्ग

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नहीं मांगते राज्य स्वर्ग
नहीं मांगते राज्य स्वर्ग सुख, हमें मुक्ति की चाह नहीं।
बस इतना कर दो दुखियों में, रहे कष्ट का दाह नहीं॥
जब पथ से विचलित हो जन मन, भूल जाय परमार्थ प्रयोजन।
खोजे अपना ही सुख साधन, बढ़े असुरता का सम्मोहन॥
तब प्रतिपल तिल- तिल जलकर, बने ज्योति की राह कहीं॥
पराधीनता की कुण्ठायें, जब मानव को विवश बनायें।
मृग मरीचिका सी आशायें, असफल प्राणों को भटकायें॥
तब उस जीवन के मरुस्थल में, हमें बना दो छांह कहीं॥
तथा कथित सब धर्म धुरन्धर, हो जब भाग्यवाद पर निर्भर।
भूतल को भव सिन्धु बताकर, दूर हमें झंझा से उरकर॥
तब हम कर्णधार को लेकर, जूझें बनकर नाव कहीं॥
जब तक सुलभ न स्वर्ग सभी को,शांति नहीं व्याकुल धरती को।
जब तक चैन न हर प्राणी को, कैसे रुचे आत्म सुख जी को॥
जन्म- जन्म से पुण्य हमारे, लुट जाये परवाह नहीं॥

संगीत के विद्यमान सूक्ष्म ध्वनि तंरगों का मनुष्य की मनोदशा पर गहरा प्रभाव पड़ता है।
संगीत टूटे हुए हृदय की औषधि है। - ए. हन्ट

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