प्रज्ञा पुराण सुनिये
प्रज्ञा पुराण सुनिये, दुःखनाशिनी कथा है।
दुःख द्वन्द्व दूर होते, मिटती सकल व्यथा है॥
हर ओर छा रहा है, दुर्बुद्धि का अंधेरा।
संकीर्णता अहंता ने, है आदमी को घेरा॥
साधन बहुत बढ़े हैं, पर मन हुआ विकल है।
अस्वस्थ देह मन है, कमजोर आत्मबल है॥
सब चल रहे न लेकिन, कुछ लक्ष्य का पता है॥
इस लोकहित कथा से, हर दृष्टि स्वच्छ होती।
सुख शांति और सफलता, सबके मनों में होती॥
आत्मिक विकास होता, भ्रम का विनाश होता।
जिसमें न कुछ छिपा हो, ऐसा प्रकाश होता॥
फिर स्वार्थ जन्य चिन्तन, मन को न सालता है॥
निज मार्ग से पुनः यह, मानव भटक रहा था।
जंजाल में भ्रमों में, जीवन अटक रहा था॥
है ज्ञान की ये धारा, प्रभु की महानता है।
अज्ञान को मिटाने, रेखा अमिट खिंची है॥
प्रज्ञा पुराण पावन, युगऋषि ने तब रची है॥