व्याख्या- वस्तुतः सर्वव्यापी परमात्मा, आत्मा में ही विराजे
हुए हैं वही हृदयस्थ आत्म चेतना कहती है कि मैं तेरे कितने
पास हूँ फिर भी तू मुझे देख नहीं पाता। कारण तू तो उस मृग के
समान इधर- उधर भागा फिर रहा है, जिसकी नाभि में कस्तुरी का निवास है और हर दिशा में तलाश करता भटक रहा है।
स्थाई- पास रहता हूँ तेरे सदा मैं अरे,
तू नहीं देख पाये तो मैं क्या करूँ।
मूढ़ मृग तुल्य चारों दिशाओं में तू,
ढूँढ़ने मुझको जाये तो मैं क्या करूँ॥
तू हमेशा मुझ पर ही दोषारोपण करता रहता है कि यह नहीं दिया, वह नहीं दिया लेकिन ‘साधन धाम मोक्ष कर द्वारा’ मानव शरीर जैसी महत्वपूर्ण निधि तुझे दे दी है। फिर भी तुझे संतोष न मिले तो मैं क्या करूँ।
अ.1- कोसता दोष देता मुझे है सदा,
मुझको यह न दिया मुझको वह न दिया।
श्रेष्ठ सबसे मनुज तन तुझे है दिया,
सब्र तुझको न आये तो मैं क्या करूँ॥
मैं तो तेरी अंतरात्मा मे ही बैठा हूँ और सदैव तुझे बुरे काम करने से रोकता हूँ पर तू तो विषयों में लिप्त होकर आत्मा की आवाज सुनता ही कहाँ है।
अ.2- तेरे अंतःकरण में विराजा हुआ,
कर न यह पाप करता हूँ संकेत मैं।
लिप्त विषयों में हो सीख मेरी भुला,
ध्यान में तू न आये तो मैं क्या करूँ॥
अच्छे बुरे की परख करने वाली बुद्धि भी मैंने तुझे दे दी है। किन्तु तू तो सद्कर्मों के अमृत को छोड़ दुष्कर्मों के विषयों में फँसा रहता है।
अ.3- जाँच अच्छे- बुरे की तुझे हो सके,
इसलिए बुद्धि मैंने तुझे दी अरे।
किन्तु तू मंद भागी अमृत छोड़कर,
घोर विषयों में जाये तो मैं क्या करूँ॥
मैंने तेरे उपयोग के लिए फूल- फल, शाक, मेवा, दुग्ध न जाने
कितने श्रेष्ठ और मधुर पदार्थ बनायें है। लेकिन तू तो शराब, माँस,
तम्बाकू आदि को खाते रहकर अपने अच्छे- खासे शरीर में रोग लगा
ले तो मैं क्या करूँ।
अ.4- फूल शाक मेवा व दुग्धादि सब,
मधुर आहार मैंने तुझे है दिए।
तू तमाखू अमल मद्य मांसादि खा,
रोग तन पर लगाये तो मैं क्या करूँ ॥
सुन्दर सुरम्य प्राकृतिक छटाओं से भरा संसार तुझे दिया है किन्तु तू तो अपनी काली करतूतों से उसे भी नर्क जैसा दुखद बना ले तो मैं क्या करूँ? पगले चेत और अपने को पहचान।
अ.5- सरल सुखकर मनोरम सुदृश्यों भरा,
विश्व सुन्दर प्रकाशार्थ मैने दिया।
अपनी करतूत से स्वर्ग वातावरण,
नर्क तू ही बनाये तो मैं क्या करूँ॥