गीत संजीवनी-6

औरों के हित जो जीता है

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औरों के हित जो जीता है
औरों के हित जो जीता है,औरों के हित जो मरता है।
उसका हर आँसू रामायण,प्रत्येक कर्म ही गीता है॥
जो तृषित किसी को देख सहज,ही होता है आकुल- व्याकुल ।।
जिसकी साँसों में पर पीड़ा,भरती है अपना ताप अतुल॥
वह है शंकर जो औरों की,वेदना निरन्तर पीता है॥
जो सहज समर्पित जनहित में,होता है स्वार्थ त्याग करके।
जिसके पग चलते रहते हैं,दुःख दर्द मिटाने घर- घर के॥
वह है दधीचि जिसका जीवन, जगहित तप करके बीता है॥
जिसका जीवन संघर्ष बनी,औरों की गहन समस्या है।
तम में प्रकाश फैलाना ही,जिसकी आराध्य तपस्या है॥
जो प्यास बुझाता जन- जन की,वह पनघट कभी न रीता है॥
जिसने जग के मंगल को ही,अपना जीवन व्रत मान लिया।
परिव्याप्त विश्व के कण- कण में,भगवान् तत्त्व पहचान लिया॥
उस आत्मा का सौभाग्य अटल, वह ही प्रभु की परिणिता है॥
मुक्तक-
जिया स्वयं के लिये नहीं जो- औरों के हित मरना सीखा।
दुःखियारी पीड़ित मानवता- देख के जिसका अन्तस् चीखा॥
बना वही जग का पैगम्बर- मन्दिर का भगवान बन गया।
गुरुद्वारे का ज्ञानग्रंथ वह- गिरजाघर की शान बन गया॥

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