गीत संजीवनी-6

एक दिन ही जी

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एक दिन ही जी
एक दिन ही जी, मगर इन्सान बनकर जी।
आपदा आये भले, मत छोड़ना संकल्प अपने।
हो सघन मत टूटने, देना कहीं सुकुमार सपने॥
देखना मुड़कर भला क्या? पंख बींधे कण्टकों को।
मत कभी देना महत्ता, मार्ग- व्यापी संकटों को॥
एक दिन ही जी, सफल अभियान बनकर जी!
एक छोटी नाव, उसके ही सहारे पार जाना।
हो भले तूफान राही! सोचना मत, जूझ जाना॥
कष्ट सहकर भी स्वयं, इस विश्व का उपकार कर जा।
छोड़ जा पदचिह्न अपने, तीर्थ नव- निर्माण कर जा॥
एक दिन ही जी, जगत की शान बनकर जी!
चमक बिजली- सा गगन में, जब कभी छायें घटायें।
बन अडिग चट्टान! तुझसे, आंधियाँ जब जूझ जायें॥
कुछ नहीं कठिनाइयाँ, विश्वास की ज्वाला जलाले।
युग नया निर्माण करने, की अटल सौगन्ध खा ले॥
एक दिन ही जी, मगर वरदान बनकर जी!
मुक्तक-
जिन्दगी थोड़ी जियें पर शान से-
जूझते जायें सदा तूफान से।
क्या नहीं संभव हुआ संकल्प से-
मौत भी घबरा गयी इन्सान से॥
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