महिला जागृति

नारी न्याय चाहती है

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(१) नारी न्याय चाहती है - इन्साफ जिन्दा रहना चाहिए। हम न्याय माँगते हैं, हमें न्याय मिलना चाहिए। हम किसी की दया कृपा की पात्र नहीं बनना चाहतीं। दया और कृपा भी अच्छी होती है, किन्तु न्याय पृथक है। हम न्याय की माँग करती हैं। कोई दुर्बल है, कामजोर है, अशिक्षित है या पिछड़ा हुआ है तो उसे न्याय न मिले यह असंगत है। महिलाएँ पिछड़ी हैं, कमजोर हैं, अशिक्षित हैं, इसलिए उन्हें कैसे भी रखा जाएगा, कैसा भी व्यवहार किया जाएगा, यह अन्याय है। दुनिया में पहले बहुत- सी बेइन्साफियाँ थीं, वे चली गयीं, जो बनी हैं वे जा रहीं हैं, एक बेइन्साफी थी कि राजा जमीन के मालिक होते थे और किसान कि राजा जमीन के मालिक होते थे और किसान किरायेदार! वे राजा जिसको चाहें अपनी जमीन दें या न दें या देकर छीन लें। वे राजा समाप्त हो गए। जमींदारी प्रथा खत्म हो गई। एक और बेइन्साफी थी- दास- दासी प्रथा। यह सारे संसार में प्रचलित थी।

इन दास दासियों को बेचा जा सकता था, दान किया जा सकता था। मनचाहे ढंग से उनके उनके शरीर का इस्तेमाल किया जा सकता था। भेड़- बकरी की तरह उन्हें मार डाल सकते थे, उनसे नाराज होने पर उनके शरीर से क्रूर व्यवहार किया जा सकता था। २०० वर्ष पहले तक गुलामों का व्यापार होता था। अब यह प्रथा भी समाप्त हो गई, अब कहीं नहीं है। सब से अन्त में अमेरिका में समाप्त हुई। वहाँ पर गुलाम बैलों की जगह जाते थे, गाडियाँ चलाते थे। परोक्ष और प्रच्छन्न रूप से यह बेइन्साफी नारी पर लागू होती है। विवाहित नारी को उसका पति अभी भी यदि ससुराल नहीं जाती पुलिस की मदद से, दुसरों की मदद से, राजी से, बेराजी, जबरदस्ती, पकड़कर, घसीटकर ले जा सकता है। घर में डाँट सकता है, पीट सकता है, मार सकता और पड़ौसी दूसरे लोग उसी प्रकार हस्तक्षेप नहीं कर सकते, जैसे कोई बकरी- भेड़ को खरीद कर लाता है- उसे मार सकता है, किन्तु दूसरा व्यक्ति पड़ौसी उसमें दखलंदाजी नहीं कर सकता। इस स्थिति को खत्म किया जाना चाहिए। इस अन्याय को सहने का कारण केवल नारी की एक कमजोरी हो सकती है। वह कमजोरी भी यह है कि वह बच्चे पैदा करती है।

गर्भावस्था में ही वह बुरी तरह कमजोर हो जाती हैं, प्रसव में जीवन- मृत्यु का संकट झेलती है और शिशु को दूध पिलाने में अपने शरीर की सारी शक्ति गँवाकर छूछ हो जाती है। कमाने योग्य नहीं रहती। इसके बाद भी बच्चों का पालन- पोषण और घर की रखवाली, रसोईदारी, सफाई आदि की व्यवस्तता के कारण वह इस योग्य नहीं रहती कि कमाई कर सके और स्वावलम्बी रह सके। यही है उसका सबसे बड़ा कसूर, सबसे बड़ा पाप, कष्ट भोगने का कारण उसकी मजबूरी। महिला जागरण अभियान चाहता है कि कोई किसी पर नाजायज दबाव न डाले, अमानुषिक व्यवहार न करे। किसी की कमजोरी का नाजायज फायदा न उठाये। एक दूसरे को अधिक प्यार करे, मिलकर रहें एक दूसरे की सहयाता करें, मिल- जुलकर काम करें, एक दूसरे के काम आयें उनमें निकटता बढ़े, स्नेह बढ़े जिससे वे एक दूसरे की कमी को पूरा कर सकें,उसके दोषों को भुलाकर उसके त्याग और सहयोग की प्रशंसा और मूल्यांकन करें,प्रोत्साहन दें। घरों में अधिकारों की दौड समाप्त हो और कर्त्तव्य- उत्तदायित्वों की प्रति समयदान शुरू हो। घरों में स्वर्ग आयें, नारी को न्याय मिले। संविधान के अनुसार पुरूष- स्त्री दोनों को बोलने, सोचने, व्यवसाय, काम करने की स्वाधीनता एक- सी होते हुए भी व्यवहार में वैसी समता कहाँ है? औचित्य की माँग है कि नर और नारी दोंनो को बराबर का न्याय मिलना चाहिए। मानवीय मौलिक अधिकार बिना वर्ग और लिंग भेद के सबको उपलब्ध रहे। समाज की संरचना ऐसी हो जिसमें सभी को सुव्यवस्था और समानता का अधिकार मिले। समाज की संरचना- समानता के आधार पर हो,सबको समान न्याय मिले। हमारे समाज की व्यवस्था प्यार और सहकार के आधार पर हो। मर्द स्त्री की सहायता करे, स्त्री मर्द की सेवा करे।

दोनों और स्नेह के माध्यम से एक- दूसरे के पूरक बनें। रथ के पहिए की तरह से समान,एक- दूसरे से कोई छोटा-बडा नही। एक- दूसरे के प्यार बन्धन में इस कदर बँधें हों कि कोई किसी के विरूद्ध जाने की बात तो दूर, कल्पना भी मन में न ला सके ।। दोनों में अटूट स्नेह और प्यार रहे, प्यार का, सहयोग और सहकार का, शालीनता, सौभाग्या का कानून संसार में रहे और लोग स्वर्गीय आनन्द की सुख प्राप्त करें। कोई किसी पर दबाव का, जोर- जबर्दस्ती का प्रयोग न करें पति- पत्नी, भाई- बहिन, माँ- बेटी, बाप- बेटे में भी ऐसे ही अटूट प्यार और स्नेह हो। सब एक- दूसरे से अपने प्यार के, सहकार और सहयोग के बन्धन में ऐसे जकड़ जाएँ कि हिल न सकें। एक- दूसरे को जीत लें। पर यह सब किसी परावलम्बन, दबाव और जोर- जबरदस्ती के कारण न हो। पर्दा प्रथा, पतिव्रत आदि के जो भी नियम बनें वह नर और नारी दोनों पर समान रूप से लागू हों। विधवा विवाह, विधुर विवाह के सम्बन्ध में एक जैसी ही परम्परा स्वीकार की जाय।

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