किसी भी जाति के त्यौहार और उत्सव वहाँ के इतिहास और परम्परा के परिचायक होते हैं ।। उनसे उस जाति के ओज, शौर्य और अन्य गुणों का भी अनुमान लगाया जा सकता है ।। पर आजकल हमारे अधिकांश देशवासी त्यौहारों के मूल- तत्व को भूलकर उनको प्रायः उल्टे- सीधे ढंग से मनाने लग गये हैं, जिससे लाभ के स्थान पर प्रायः हानिकारक ही होती जान पड़ती है ।।
समाज में विशेष रूप से चार श्रेणियों के व्यक्ति दिखलाई पड़ा करते हैं ।। पहले प्रकार के व्यक्ति वे हैं, जो अपने स्वार्थ का ध्यान बहुत कम रखते हैं और अपनी शक्ति तथा साधनों का उपयोग संसार के हित के लिये करते हैं ।। दूसरी श्रेणी के मनुष्यों में शक्ति की अधिकता होती है ।। और वे उस बल का प्रयोग सज्जनों की रक्षा तथा दुष्टों के दमन में करते हैं ।। तीसरे व्यक्ति वे होते हैं, जो ज्ञान और शारीरिक शक्ति का अभाव होते हुये भी आर्थिक दृष्टि से सफल होते है, वे कृषि, पशु पालन और व्यापार द्वारा उचित ढंग से धन कमाकर समाज के अनेक अभावों को दूर करने में सहायक बनते हैं ।। चौथी श्रेणी उन मनुष्यों की होती है, जो ज्ञान, बल ओर धन से रहित होते हुये शारीरिक श्रम से समाज की अत्यन्त उपयोगी सेवा करते हैं ।। इन चारों प्रकार के मनुष्यों को हम भारतीय समाज के प्राचीन संगठन के अनुसार ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र के नाम से पुकार सकते हैं ।।
ये चारों श्रेणियों के व्यक्ति अपनी प्रवृत्ति के अनुसार समाज सेवा करते एक- दूसरे को सहयोग व सहायता प्रदान करते रहते थे ।। अपने कर्तव्यों के स्मरणार्थ प्रत्येक श्रेणी का एक- एक त्यौहार भी नियत किया गया था ।। इनमें से श्रावणी ब्राह्मणों का त्यौहार है जिस प्रकार वे किसी पवित्र जलाशय के तट पर अपने धार्मिक कर्तव्यों का स्मरण करते हुए नवीन यज्ञोपवीत धारण करते हैं और प्रतिज्ञा करते हैं कि उस वर्ष द्विजत्व के कर्तव्य के पालन व सद्ज्ञान के प्रचार में दत्तचित्त रहेंगे ।। दशहरा क्षत्रियों का त्यौहार माना गया था ।। इस दिन पुरुषार्थी व्यक्ति अपने बल- पौरुष का अभ्यास कर हथियारों को साफ करके काम के लायक बनाते थे ।। जिसमें वे अपने आर्थिक कारोबार का सिंहावलोकन करके आगामी वर्ष के लिये बजट और योजना पर विचार करते थे ।। चौथा होली का त्यौहार है जिसमें श्रमजीवी वर्ग की ओर से सेवा और समानता के आदर्श की घोषणा की जाती थी ।।
वर्तमान समय में यद्यपि सभी त्यौहारों में अनेक दोष घुस गये हैं और उनका आदर्श स्वरूप अधिकांश में लोप हो गया है, परन्तु होली का रूप सबसे अधिक बिगड़ा है ।। वैसे इस त्यौहार के मनाने की जो प्राचीन परिपाटी प्रतीक रूप में अब भी प्रचलित है, उससे प्रकट होता है कि यह एक विशुद्ध सामूहिक यज्ञ है ।। इस सम्बन्ध में निम्न तथ्य ध्यान देने योग्य हैं-
(१) एक मास पूर्व शमी की लकड़ी गाड़कर फाल्गुन सुदी १५ को लकड़ी, कंडे इकट्ठे करके जलाना यज्ञ का ही रूप है ।।
(२) जलाने से पूर्व आचार्य पंडित द्वारा उसका पूजन होना और गाँव के मुखिया द्वारा पूजन करवाना यह यज्ञ के यजमान बनाये जाने का चिह्न है ।।
(३) होली में नारियल के लच्छे लपेटकर डालना यज्ञ की पूर्णाहुति में नारियल चढ़ाने का चिह्न है ।।
(४) इसके पूजन में मिठाई गुड़ आदि चढ़ाकर बच्चों में बाँटना यज्ञ में प्रसाद वितरण का लक्षण है ।।
(५) इसकी लपटों में, अग्नि में हविपात्र की बालों को पकाकर खाना भी यज्ञ का ही एक लक्षण है ।।
(६) होली एक ऐसा त्यौहार है जो ऋतुराज वसंत में आता है ।। इसी समय सर्दी का अन्त और ग्रीष्म का आगमन होता है ।। इस समय ऋतु- परिवर्तन से चेचक के रोग का प्रकोप होता है ।। इस संक्रामक रोग से बचने के लिये पुराने समय में टेसू के फूलों का रंग बनाकर एक- दूसरे पर डालने की प्रथा चलाई गई थी और यज्ञ की सामग्री में भी इन्हीं फूलों की अधिकता रखी गई थी जिससे वायु में उपस्थित रोग के कीटाणु नष्ट हो जायें ।। पर आज उस टेसू के लाभदायक रंग के स्थान पर हानिकारक विदेशी रंगों का प्रयोग किया जाता है और लोग उनके चटकीलेपन को पसन्द भी करते हैं ।। अब वह प्रथा बहुत विकृत हो गई है और लड़के तथा नवयुवक बुरे- बुरे रंग सर्वथा अनजान और भिन्न समाज वालों पर भी डाल देते हैं, जिससे अनेक बार खून- खराबी की नौबत तक आ जाती है और रंग की होली के बजाय खून की होली दिखलाई पड़ने लगती है ।। यह मूर्खता की पराकाष्ठा है, और ऐसे लोग- त्यौहार मनाने की बजाय देश तथा धर्म की हत्या करते हैं ।।
(७) होली को पूर्वजों ने एक सामूहिक सफाई के त्यौहार के रूप में भी माना था ।। जैसे दिवाली पर प्रत्येक व्यक्ति निजी घर की लिपाई, पुताई और स्वच्छता करता है, उसी प्रकार होली पर समस्त ग्राम या कस्बे की सफाई का सामूहिक कार्यक्रम रखा जाता था ।। वसंत ऋतु में सब पेड़ों के पत्ते झड़- झड़ कर चारों और फैल जाते है, बहुत कुछ कूड़ा कबाड़ भी स्वभावतः इकट्ठा होता है, उस सबकी सफाई होली में कर दी जाती थी ।। पर अब लोग उस उद्देश्य को भूलकर दूसरों पर कीचड़ और धूल फेंकने को त्यौहार का अंग समझ बैठे हैं ।। इससे उल्टा लोगों का स्वास्थ्य खराब होता है और अनेक बार आँख आदि में चोट भी लग जाती है ।।
(८) प्राचीन समय में होली प्रेम भाव को बढ़ाने वाला त्यौहार था ।। अगर वर्ष भर में आपस में कोई- झगड़े या मनमुटाव की बात हो गई हो तो इस दिन उसे भुलाकर सब लोग प्रेम से गले मिल लेते थे और पुरानी गलतियों के लिए एक- दूसरे को क्षमा करके फिर से मित्र सहयोगी बन जाते थे अब भी इस दिन एक- दूसरे के यहाँ मिलने को जाते हैं, पर प्रायः नशा करके गाली बक कर झगड़ा पैदा कर लेते हैं, जो होली के उद्देश्य के सर्वथा प्रतिकूल है ।।
वास्तव में होली का त्यौहार हमारे समाज में सबसे अधिक सामूहिकता का परिचायक है और यदि इसे समझदारी के साथ मनाया जाय तो यह हमारे लिये अत्यन्त कल्याणकारी सिद्ध हो सकता है ।। जिस प्रकार होली के पौराणिक उपाख्यान में बतलाया गया है कि सच्चे भक्त प्रहलाद ने असत्य और अन्याय का प्रतिरोध करके सत्य की रक्षा की थी और उसी की स्मृति में होली के त्यौहार की स्थापना की गई थी, उसी प्रकार हम भी यदि इस वास्तविक उद्देश्य का ध्यान रखकर होली का त्यौहार मनायेंगे तो इस अवसर पर वर्तमान समय में होने वाली अनेक हानियों से बचकर इस त्यौहार को लोक कल्याण का एक प्रमुख साधन बना सकते हैं ।।