मनुष्य बुद्धिमान प्राणी है ।। उससे हर प्रकार की समझदारी की अपेक्षा की जाती है ।। वह यथासंभव इसका निर्वाह भी करता रहता है, पर समझदारी के साथ जहाँ स्वार्थ और उतावलापन जुड़ जाते हैं, वहाँ वह नासमझी जैसी हानिकारक बन जाती और कर्त्ता समेत अनेकों को पूरे समाज को अपना शिकार बनाती है ।।
इन दिनों प्राकृतिक संसाधनों के दोहन के संदर्भ में ऐसी ही उतावली बरती जा रही है ।। जब रोज सोने का अण्डा देने वाली एक मुर्गी का पेट चीरकर सारे अण्डे एक ही दिन निकाल लेने की बात सोची जाय, तो इसे क्या कहा जाय- समझदारी या नासमझी? इसकी चर्चा करना अनावश्यक होगा ।। कर्त्ता का इसमें अपनी बुद्धिमान नजर आ सकती है ।। उसे लाभ मिलता भी प्रतीत हो सकता है, पर इसका दुसह्य दुष्परिणाम जब समाज और समुदाय को भोगना पड़ता है, तब समझ में आता है कि जल्दबाजी में जो निर्णय लिया कार्य किया गया, उससे लाभ तो मिला, पर वह लाभ उस नुकसान की तुलना में नगण्य जितना ही था, जो समूचे पर्यावरण, प्रकृति एवं उसमें रहने वाले प्राणियों को उठाना पड़ा ।।
मूर्धन्य प्रकृति विज्ञानी डेक्डिसन का कहना है कि जब तक व्यक्ति को पर्यावरण संतुलन का मूल्य और महत्त्व मालूम नहीं होगा, तब कि इस प्रकार की स्वार्थपरता बरती ही जाती रहेगी, जिसमें एक की सम्पदा तो बढ़ेगी, पर उस समृद्धि की कीमत पर समस्त विश्व का, प्रकृति व प्राणी का कितना अहित होगा, इसका मूल्यांकन कर सकना संभव नहीं ।। इस दिशा में सही सोच उभरने पर ही सही कदम उठ सकेंगे ।। अब यह दायित्व तथाकथित विकसित व विकासशील देशों के कंधों पर है कि व ऐसे विनाशकारी विज्ञान की ओर न बढ़ कर सन्तुलन शास्त्र के सिद्धांतों का सही अर्थों में पालन करते हुए नयी समाज संरचना का विकास करें ।।
निसर्ग का अपना एक स्वतंत्र तंत्र है, जिसके माध्यम से वह अपना संतुलन- समीकरण बराबर बनाये रहता है, हर जीवन की आवश्कताओं की पूर्ति करता रहता है ।। इससे उन प्राणी समुदायों में भी संतुलन बना रहता है और प्रकृति भी साम्यावस्था में बनी रहती है ।। उदाहरण के लिए किसी वन के शाकाहारी जन्तुओं की संख्या में असाधारण वृद्धि हो गई हो, तो ऐसी स्थिति में वे वन के वृक्ष- वनस्पतियों का सफाया करेंगे ।।
आहार की कमी पड़ने से कुछ की भूख से असामयिक मृत्यु होगी ।। फिर भी यदि संख्या अनियंत्रित रही, तो हिंसक पशुओं की बढ़ोत्तरी होगी, वे अहिंसक जीवों का आहार कर उनकी संख्या नियंत्रित करेंगे ।। इस बीच यदि हिंसक प्राणियों में अभिवृद्धि हुई, तो भोजन की कमी से उनकी अकाल मौत होगी और उनकी बढ़ोत्तरी में कम आयेगी ।। इस प्रकार प्रकृति- तंत्र अपना संतुलन सदा बनाये रखता है ।।
फ्रायड हाउल ने अपनी पुस्तक ''नेचर एण्ड इक्विलिब्रियम'' में इसी आशय का एक उदाहरण प्रस्तुत कर यह समझाने का प्रयास किया है कि प्रकार प्रकृति की स्वसंचालित प्रक्रिया के माध्यम से उसका नियमन- नियंत्रण होता है ।। वे एक अध्ययन के आधार पर लिखते हैं कि सन् 1890 के आस- पास अमेरिका में वन्य क्षेत्र 7 लाख एकड़ के विस्तृत भू- भाग पर फैला हुआ था ।। उसमें 35 हजार हिरनों की गणना हुई, तो उसमें सिर्फ 4 हजार हिरण शेष पाये गये ।। इस बीच शिकारियों ने शेर, चीते, बाघ जैसे हिंसक पशुओं का भी वध किया ।।
सन् 1908 से 1911 के तीन वर्षों में आठ सौ के करीब हिंसक जन्तुओं का शिकार किया गया ।। इन माँसाहारी प्राणियों की संख्या में पुनः द्रुत गति से वृद्धि देखी गई ।। सन् 1920 में इनकी संख्या बढ़कर 40 हजार हो गई ।। अगले दशक में इनकी तादाद और बढ़ी एवं संख्या 1 लाख तक जा पहुँची ।। इस बीच वनस्पतियों के कम पड़ने से उनका चारा अपर्याप्त हो गया ।।
जंगल भी बड़े पैमाने पर नष्ट हुए ।। इससे हिरन बड़ी संख्या में भूख से दम तोड़ने लगे ।। सन् 1940 के आस- पास इनकी संख्या मात्र दस हजार रह गई ।। इतने पर भी वे अपना भोजन बड़ी कठिनाई से ही जुटा पाते थे ।।