विज्ञान की अपनी गरिमा है, प्रगति का अपना महत्व । इन दोनों की उपयोगिता-आवश्यकता से इन्कार नहीं किया जा सकता । इतने पर भी इनका लाभ तभी है जब सृजन की दिशा में उन्हें प्रयुक्त किया जाता रहे । विनाश के लिये उपयोग की गई शक्ति सदा घातक ही होती है । सामर्थ्य जितनी अधिक होगी विकास या विनाश का उपक्रम भी उसी अनुपात में चलेगा ।
यह प्रगति का युग है । विज्ञान क्षेत्र की प्रतिभाएँ इस क्षेत्र में विशेष रूप से अग्रणी हैं । शासन का सहयोग, प्रोत्साहन उनके साथ है । प्रचुर साधन उपलब्ध कराने में भी उन्हें कोई कठिनाई नहीं होती । औद्योगिक उपार्जन कर्त्ता एवं व्यवसायी ऐसी उपलब्धियों की ताक में रहते हैं ताकि उन्हें समृद्ध बनने का कोई बड़ा अवसर हाथ लग सके । इसलिये शासन की तरह सम्पत्तिवान भी विज्ञानियों को चरम-पुरुषार्थ करने एवं उनके लिये लाभदायक आधार खड़े करने के लिये हर सम्भव सहयोग देते रहे हैं । इन्हीं परिस्थितियों में विज्ञान की उन धाराओं को अधिक अग्रगामी बनने का अवसर मिला है, जो शासकों एवं औद्योगिकों को अधिक सामर्थ्य प्रदान कर सके । आयुध, भौतिकी एवं औद्योगिकी को इसी आधार पर प्रोत्साहन मिला है और वह प्रगति की चरम सीमा तक जा पहुँचा है ।
पिछले युद्धों और महायुद्धों के रोमांचकारी विवरण को पढ़कर भावी युद्धों की कल्पना भर से हृदय धड़कने लगता है । उनमें आक्रान्ता और आक्रांत समुदायों को ही क्षति नहीं पहुँचेगी वरन् मानव समाज को समूची प्रगति से हाथ धोना पड़ेगा । इतना ही नहीं मानवीय अस्तित्व तक का बने रहना कठिन हो जायेगा । आयुधों के स्तर पर और परिणाम पर दृष्टिपात करने से महाविनाश की विभीषिका सामने आ खड़ी होती है ।
पिछली शताब्दी से लेकर प्रथम विश्वयुद्ध तक, दूसरे विश्वयुद्ध से लेकर आज तक संहारक अस्त्रों की संख्या निरन्तर बढ़ती ही जा रही है । न केवल नये प्रकार के अस्त्र विकसित हुए हैं, वरन परम्परागत अस्त्रों में भी आश्चर्यजनक सुधार किये गये हैं । यदि तीसरा विश्वयुद्ध हुआ तो उसमें किस प्रकार के अस्त्र प्रयोग किये जा सकते हैं, इसका अनुमान लगाना कठिन है ।
द्वितीय विश्वयुद्ध के अन्तिम दिनों में ही जर्मनी ने एक ऐसी राइफल निर्मित की थी जो एक के बाद एक लगातार फायर कर सकती थी । तब से लेकर अब तक इस प्रकार की राइफलों के नये-नये संस्करण एवं स्वरूप सामने आ चुके हैं । परम्परागत राइफल में एक बार में एक ही लक्ष्य पर गोली दागी जा सकती थी परन्तु इन नई राइफलों में धड़ाधड़ गोली दाग सकने की व्यवस्था है । इन नवीन प्रकार की राइफलों में भी अब सुधार किये जा रहे हैं । एक तो यह कि जब चाहें लगातार फायर कर सकें, दूसरा सुधर लक्ष्य पर ही सही निशाना लगा सकने की व्यवस्था में किया गया है,जिससे रात हो अथावा दिन, अचूक निशाना लगाया जा सकता है । इस तरह की राइफलें भी बनाई जा रही हैं जिनसे परम्परागत गोलियों के स्थान पर पेंसिल के सिरों की मोटाई वाले कंटीले बाणों की वर्षा हुआ करेगी ।
आगामी समय में यह भी सम्भावना है कि राइफल की जगह राकेट फेंकने वाले यन्त्रों की सहायता से प्रत्येक सैनिक छोटे-छोटे प्रक्षेपास्त्र दुश्मन पर फेंक सकेगा । एक सम्भावना यह भी है कि सिपाहियों को लेसर किरणें छोड़ने वाली बन्दूकें दी जायँ । अभी तक इन बन्दूकों के बारे में गल्प साहित्य में ही पढ़ा गया होगा परन्तु वास्तविकता यह है ऐसे अस्त्र बनाये जा चुके हैं ।
प्रचलित आयुधों में तोपखाने का विशेष महत्व रहा है । इधर पिछले एक दशक में अनेक देशों ने ऐसी हल्की एवं प्रभावशाली तोपें विकसित की है जिन्हें बन्दूक की तरह सुगमता से उठाकर ले जाना सर्वथा सम्भव हो गया है । जमीन पर लड़े जाने वाले युद्धों में प्रयुक्त हाने वाले आयुधों में टैंकों का विशेष स्थान है । द्वितीय विश्वयुद्ध में जर्मनी ने उनका प्रयोग, प्रदर्शन करे उनकी उपयोगिता की सत्यता सिद्ध कर दी है । अब तो टैंकों का भी बहुत विकास हो चुका है । फ्रांस, ब्रिटेन, रूस, अमेरिका, स्वीडन, तथा जर्मनी ने टैंकों के विकास से उल्लेखनीय प्रगति की है ।
सामान्यतः टैंक बहुत भारी हुआ करते थे और उनका इच्छानुसार उपयोग कठिनता से हो पाता था । जर्मनी ने ऐसे टैंक विकसित किये हैं । जिनका वजन 40 टन से कम है । इस दिशा में फ्रांस और ब्रिटेन तो और भी आगे निकल गये हैं । इन देशों ने ऐसे टैंक निर्मित किये हैं जो अभी तक प्रकाश में आये टैंकों से सब दृष्टियों में बेहतर तो है, ही वरन् उनका भार भी दस टन से कम है । अधिक विस्मित कर देने वाली बात तो यह हे कि अब तक तो टैंकों पर लम्बी-लम्बी तोपें फिट रहती थी किन्तु अब उनके अन्दर ही तोपें फिट करने की व्यवस्था की जा चुकी है । इसके साथ ही कम ऊँचाई के टैंक भी विकसित किये जा चुके हैं ।
यह तो लड़ाई में प्रयोग किये जाने वाले परम्परागत हथियारों की बात हुई । विगत तीन-चार दशकों में इस क्षेत्र में कल्पनातीत प्रगति हुई । 1950 की मध्यावधि में आवगमन के क्षेत्र में एक तेज गति से चलने वाला वायुयान होवर क्राफ्ट अस्तित्व में आया यह अधिक शोर करने वाला अन्धाधुन्ध धुआँ छोड़ने वाला द्रुतगामी वाहन होता है । विश्व के कई देश वर्तमान होवर क्राफ्ट के ढाँचे का परिवर्धन संशोधन करने में लगे हुये हैं । जानकारों का अनुमान है कि गतवर्ष अमेरिका अपनी नौसेना के लिए 160 टन का ऐसा होवर क्राफ्ट तैयार कर चुका है जो 400 सैनिकों अथवा अन्य युद्ध सामग्री को सैकड़ों, हजारों मीलों तक सुगमता से ढो लेता है ।
द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद जिन आयुधों में कल्पनातीत विकास हुआ है, उनमें प्रक्षेपणास्त्र प्रमुख हैं और आज तो प्रक्षेपणास्त्र किसी भी राष्ट्र के लिए प्रतिष्ठा के चिन्ह बन गये हैं । विश्व के बड़े देश ही नहीं बल्कि ब्राजील एंव दक्षिण अफ्रीका जैसे छोटे देश भी प्रक्षेपणास्त्र बनाने में जुटे हुए हैं । 1944 के बाद से अब तक प्रक्षेपणास्त्रों में चमत्कारिक विकास हुआ है ।
कुछ देश वर्षों से अनुसंधान करने क उद्देश्य से उपग्रह छोड़ रहे हैं विशेषज्ञों का कहना है कि अब ऐसे भी उपग्रह विकसित किये जा चुके हें जो अनुसंधान करने के बहाने इच्छानुसार बम गिरा देंगे ।
इन दिनों रासायनिक युद्धों की चर्चा जोरों पर है और विशेषकर वियतनाम में अमेरिका द्वारा नापाम बम बरसाये जाने के समय से सबका ध्यान इस ओर आकृष्ट हुआ । प्रथम विश्वयुद्ध में अश्रु गैस के अलावा, जहरीली गैस तथा नापाम बमों का भी प्रयोग किया गया था । उल्लेखनीय प्रक्षेपास्त्र का प्रयोग किया था, नापाम बम उसी का परिर्द्धित-संशोधित रूप है । इस प्रकार के 5 लाख टन नापाम बम अब तक के विभिन्न देशों पर गिराये गये हैं । कोरिया युद्ध में 3 हजार टन तथा वियतनाम युद्ध में 4 लाख टन नापाम बम वर्षा कर अमेरिका ने संसार को हिला दिया ।
परम्परागत युद्ध का तो मानव जाति को पूरा अनुभव है परन्तु बीसवीं शताब्दी में विज्ञान की आशातीत प्रगति ने युद्ध को अब कई नये आयाम दिये हैं । विज्ञान और टेक्नोलॉजी ने जहाँ मनुष्य के जीवन को सुखमय बनाने के साधन प्रस्तुत किये हैं वहीं उसकी मौत का घातक सरंजाम भी इकट्ठा कर दिया है ।
एक किलोटन से लेकर 60 मेगाटन और अधिक तक की शक्ति के आणविक बमों का निर्माण हो चुका है और अनुमान है कि 1994 के अन्त तक विश्व में 15000 से भी अधिक प्लूटोनियम बमों का निर्माण प्रतिवर्ष किया जाने लगेगा ।
कनाडा के अल्विन पोलपोण्ड नामक भौतिक विद् ने एक आंकड़ा प्रस्तुत किया है जिसमें अमेरिका की अकेली परमाणविक शक्ति का उल्लेख किया गया है । उनका कहना है कि अनुमान करें कि एक बड़े हाल में एक लाख व्यक्ति एकत्रित हों और प्रत्येक के हाथ में तीन परमाणु बम हों । प्रत्येक बम की मारक क्षमता हिरोशिमा पर गिराये गये बम के बराबर हो इतनी परमाणविक शक्ति अकेले आज अमेरिका के पास है । अन्य राष्ट्रों की पूरी जानकारी नहीं मिल पाई है । पर अनुमान किया जाता है कि सारे विश्व में परमाणु बम अरबों टी.एन.टी1 विनाशक क्षमता के बराबर है । यह मात्रा इतनी अधिक है कि संसार की जनसंख्या में से प्रत्येक व्यक्ति को 50 हजार बार मारा जा सकता है । इससे बढ़कर विचारशीलता का अभिशाप एवं बुद्धि पर लगा कलंक और क्या हो सकता है? कि मनुष्य ने अपने को ही 50 हजार बार माने की तैयारी कर ली है ।
जापान पर गिराये गये प्रथम परमाणु बम की शक्ति 20 हजार टी.एन.टी. थी । 20 हजार टी.एन.टी. को समझना भी कठिन है । क्योंकि किसी ने एक स्थान पर एकत्रित इतनी शक्ति नहीं देखी है । यदि किसी मेले में ऊँचे टीले पर खड़े हो जायँ और 20 हजार व्यक्तियों को एकत्रित देखें तो भी इतने वजन की आपूर्ति नहीं हो सकती । तब से लेकर अब तक और भी अधिक शक्तिशाली बमों का निर्माण हो चुका है । उनकी मारक क्षमता हिरोशिमा पर गिराये गये बम की तुलना में कई गुना अधिक है ।
1954 में पहले हाइड्रोजन बम का परीक्षण किया गया । जिसका पावन 15 मेगाटन टी.एन.टी. के बराबर था । इसकी शक्ति हिरोशिमा पर गिराये गये परमाणु बम की तुलना में 50 गुना अधिक थी । दुनिया के जो विशालतम बम हैं वे एक हजार मेगाटन टी.एन.टी.क्षमता तक के हैं । इनकी मारक क्षमता 5 हजार गुना अधिक है । अनुमानतः एक बम भी गलती से फूट जाय तो 4 करोड़ व्यक्तियों को मार सकता है । मिसाइलों द्वारा इन्हें एक स्थान से दूसरे स्थान पर ले जाने, गिराने का कार्य किया जाता है ।
पिछले महायुद्ध के अनुभवी सेनाध्यक्षों ने मिलकर एक पुस्तक लिखी है द थर्डवार उसमें उन्होंने भावीयुद्ध के कारणों और प्रयुक्त होने वाले आयुधों पर प्रकाश डाला है । लेखकों का मत है कि महायुद्ध आरम्भ करने से पूर्व आक्रांता को यह सोचना होगा कि प्रहार के बाद की प्रतिक्रिया सहन कर सकना उसके लिए सम्भव है यह नहीं । संभव है यह डर देर तक युद्ध की विभीषिका को आगे टालता रहे । फिर भी इतना तो निश्चित ही है कि अणु आयुधों के उत्पादन एवं जमा रखने से भी जो विकिरण उत्पन्न होता है उसकी क्रमिक विनाश लीला से मानव जाति को त्रास सहने से कैसे बचाया जा सकेगा ।
आयुधों के संदर्भ में विज्ञान की उपलब्धियों और प्रतिक्रियाओं पर विचार करने से इस निष्कर्ष पर पहुँचना पड़ता है कि प्रगति दिशाविहीन नहीं होनी चाहिए न ही उसका लक्ष्य निकृष्टि स्वार्थपरता का परिपोषण होना चाहए । प्रगति की दिशा में बुद्धि, श्रम एवं साधनों का उपयोग तभी सार्थक हो सकता है जब उसमें पिछड़ों को उठाने एवं उठों को उत्कृष्ट बनाने में प्रयोग हो सके । विज्ञान की प्रगति यदि इसी दिशा में सम्भव हो सकी होती या भविष्य में हो सके तो ही उसकी सार्थकता हो अन्यथा पुरुषार्थ विघातक भी हो सकता है जैसे कि इन दिनों ज्ञान-विज्ञान, धन, पुरुषार्थ, कला आदि के क्षेत्रों में हो रहा है ।
(युग परिवर्तन कैसे? और कब पृ. 5.10)