काल गणना के संदर्भ में युग शब्द का उपयोग अनेक प्रकार से होता है ।। जिन दिनों जिस प्रचलन या प्रभाव की बहुलता होती है उसे उसी नाम से पुकारा जाने लगता है ।। जैसे ऋषि युग, सामंत युग, जनयुग आदि ।। रामराज्य के दिनों की सर्वतोन्मुखी प्रगति, शांति और सुव्यवस्था को सतयुग के नाम से जाना जाता है ।। कृष्ण की विशाल भारत निर्माण संबंधी योजना के एक संघर्ष पक्ष को महाभारत का नाम दिया जाता हे ।। परीक्षित के काल में कलयुग के आगमन और उससे राजा के संभाषण अनुबंधों का पुराण गाथा में वर्णन है ।।
अब भी रोबोट युग, कम्प्यूटर युग, विज्ञान युग आदि की चर्चा होती रहती हैं ।। अनेक लेखक अपनी रचनाओं के नाम युग शब्द जोड़कर करते हैं ।। जैसे यशपाल जैन का 'युग बोध' आदि ।। यहाँ युग शब्द का अर्थ जमाने से है ।। जमाना अर्थात उल्लेखनीय विशेषता वाला जमाना, एक एरा, एक पिरामिड इसी संदर्भ में आमतौर से 'युग' शब्द का प्रयोग होता है।
युगों की गणना कितने ही प्रकार से होती है ।। उनमें एक गणना हजार वर्ष की है ।। प्रायः हर सहस्राब्दी में वातावरण बदल जाता है, परम्पराओं में उल्लेखनीय हेर- फेर होता है ।। बीसवीं सदी के अन्त और इक्कीसवीं सदी के प्रारम्भी को एक युग का समापन और दूसरे का शुभारंभ माना गया है।
इसी भाँति पंचांगों में कितने ही संवत्सरों के आरंभ संबंधी मान्यताओं की चर्चा है ।। एक मत के अनुसार युग करोड़ों वर्ष का होता है ।। इस आधार पर मानवीय सभ्यता की शुरुआत के खरबों वर्ष बीत चुके हैं और वर्तमान कलियुग की समाप्ति में अभी लाखों वर्ष की देरी है ।। पर उपलब्ध रिकार्डों के आधार पर नेतृत्ववेत्ताओ और इतिहासकारों का कहना है कि मानवीय विकास अधिकतम उन्नीस लाख वर्ष पुराना है, इसकी पुष्टि भी आधुनिक तकनीकों द्वारा की जा चुकी है ।।
काल गणना करते समय व्यतिरेक वस्तुतः प्रस्तुतीकरण की गलती के कारण है ।। ग्रंथों में जो युग गणना बतायी गई है, उसमें सूर्य परिभ्रमण काल को चार बड़े खण्डों में विभक्त कर चार देव युगों का कल्पना की गई है ।। एक देव युग को 4,32,000 वर्ष का माना गया है ।। इस आधार पर धमर्ग्रन्थों में वर्णित कलिकाल की समाप्ति की संगति प्रस्तुत समय से ठीक- ठीक बैठ जाती है ।।
यह संभव है कि विरोधाभास की स्थिति में लोग इस काल गणना पर सहज ही विश्वास न कर सकें, अस्तु यहाँ 'युग' का तात्पर्य विशिष्टता युक्त समय से माना गया है ।। युग निर्माण योजना आन्दोलन अपने अन्दर यही भाव छिपाये हुए है ।। समय बदलने जा रहा है, इसमें इसकी स्पष्ट झाँकी है ।।
प्रत्येक संधि का अपना विशेष महत्त्व होता है ।। सूर्योदय और सूर्यास्त का समय संधिकाल कहलाता है ।। यह दोनों समय 'पर्व काल' कहलाता हैं ।। साधना पर विश्वास करने वाले इन दोनों समयों में उपासना साधना का विशेष महत्त्व मानते हैं ।। मंदिरों से आरती और मस्जिदों से अजान की ध्वनि इन्हीं संधि वेलाओं में सुनाई देती है ।।
सर्दी और गर्मी, इन दो प्रधान ऋतुओं के मिलन काल पर आश्विन और चैत्र की नव रात्रियाँ होती है ।। इन दोनों वेलाओं को पुण्य पर्व माना जाता है ।। इस अवधि में साधक गण विशेष साधनायें करते हैं ।।
रात्रि का अंत और दिन का उदय 'प्रभात पर्व' है ।। उस वेला में सभी में उत्साह उमड़ता है ।। फूल खिलते हैं, पक्षी चहचहाते हैं और सभी प्राणी अपने- अपने कार्यों में विशेष उत्साह के साथ लग पड़ते हैं ।। नयी सहस्राब्दी के बारे में भी ऐसा ही मानना चाहिए ।। इक्कीसवीं सदी भी ऐसे ही शुभ संदेश साथ लेकर आ रही है ।। उसके संबंध में उज्ज्वल भविष्य की ही कल्पना और मान्यता बनानी चाहिए ।।
रात्रि जब समाप्त होती है तब अँधेरा अधिक सघन हो जाता है ।। दीपक बुझने को होता है तो उसकी लपक बढ़ जाती है ।। मरने वाले की साँसें तेज चलती हैं और धड़कनें बढ़ जाती हैं ।। समापन का समय ऐसा ही होता है ।।
कलियुग की समाप्ति और सतयुग की शुरुआत के संबंध में आम धारणा है कि सन् 1989 में 2001 तक के बारह वर्षों का समय संधिकाल के रूप में होना चाहिए ।। इसमें मानवी पुरुषार्थयुक्त विकास और प्रकृति प्रेरणा से सम्पन्न होने वाली विनाश की, दोनों प्रक्रियाएँ अपने- अपने ढंग से हर क्षेत्र में सम्पन्न होनी चाहिए ।। बारह वर्ष का समय व्यावहारिक युग भी कहलाता है ।। युग संधिकाल को यदि इतना मानकर चला जाय, तो इसमें कोई अत्युक्ति जैसी बात नहीं होगी ।।
हर बारह वर्ष के अन्तराल में एक नया परिवर्तन आता है, चाहे वह मनुष्य हो, वृक्ष, वनस्पति अथवा विश्व ब्रह्माण्ड सभी में यह परिवर्तन परिलक्षित होता है ।। मनुष्य शरीर की प्रायः सभी कोशिकाएँ हर बारह वर्ष में स्वयं को बदल देती है, अतः स्थूल दृष्टि को इसकी प्रतीत नहीं हो पाती किन्तु है यह विज्ञान- सम्मत ।।
काल गणना में बारह के अंक का विशेष महत्त्व है ।। समस्त आकाश सहित सौरमण्डल को बारह राशियों बारह खण्डों में विभक्त किया गया है ।। पंचांग और ज्योतिष का ग्रह गणित इसी पर आधारित है ।। इसी का अध्ययन कर ज्योतिर्विद् यह पता लगाते हैं, कि आगामी समय के स्वभाव और क्रिया- कलाप कैसे होने वाले है? पाण्डवों के बारह वर्ष के वनवास की बात सर्वविदित है ।। तपश्चर्या और प्रायश्चित परिमार्जन के बहुमूल्य प्रयोग भी बारह वर्ष की अवधि की महत्ता और विशिष्टता को ही दर्शाते हैं ।। इस आधार पर यदि वर्तमान बारह वर्षों को उथल- पुथल भरा संधिकाल माना गया है, तो इसमें विसंगति जैसी बात नहीं है ।।
कुछ रूढ़िवादी पण्डितों का कथन है कि युग 4 लाख 32 हजार वर्ष का होता है ।। इस हिसाब से तो नया युग आने में 3 लाख 24 हजार वर्ष की देरी है ।।