युग परिवर्तन कब और कैसे ?

तब हमें भी अपना अस्तित्व गँवाना होगा।

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विश्व के मूर्धन्य खगोलशास्त्रियों का मत है कि विगत कुछ दशकों से पर्यावरण असंतुलन बढ़ता जा रहा है । इसी की प्रक्रिया स्वरूप अनेकों प्रकार के व्यतिक्रम आ रहे हैं । यही स्थिति यथावत् बनी रही तो इस शताब्दी के आखिर तक प्राकृतिक विपदाओं-विक्षोभों की भयावह विभीषिका उत्पन्न हो सकती है । सारा संसार इसी चपेट में आ सकता है तथा मानव जाति को त्रास भुगतते-भुगतते अपना अस्तित्व गँवाना पड़ सकता है । प्राणि समुदाय के कितने ही जीव पिछले दिनों इसी कारण विलुप्त हुए है । मनुष्य भी अपनी अदूरदर्शीता के कारण वहीं गति अगले दिनों प्राप्त कर ले तो इसमें कोई आश्चर्य नहीं ।

इस संदर्भ में संयुक्त राष्ट्र कृषि एवं खाद्य संगठन के वैज्ञानिकों ने गहन अध्ययन एवं अनुसंधान किया है । उनके द्वारा प्रस्तुत निष्कर्षों के अनुसार विश्व में हर चार दिन बाद न्यूयार्क शहर के बराबर वन सम्पदा नष्ट होती जा रही है । पशु-पक्षी तथा जीव-जन्तु, जिनका मानव जीवन से अति घनिष्ठतम सम्बन्ध है, लगभग कटेंगे तो उनमें निवासरत प्राणियों की जीवन-लीला भी समाप्त होगी । प्रतिवर्ष जीव-जन्तुओं की एक हजार प्रजातियाँ तो वैसे भी लुप्त होती जा रही हैं । यही क्रम आगे भी बना रहा तो अगले बारह वर्षों में एक-चौथाई वन्य प्राणी, जीव-जन्तु पूरी तरह नष्ट हो जायेंगे । प्राकृतिक प्रजातियाँ मनुष्य के लिए बड़ी ही उपयोगी हैं

वैज्ञानिक अभी तक उसमें से मात्र 6 प्रतिशत की ही खोज कर पाये हैं । हमारी कृषि उजप और पशुधन जंगली प्रजातियों की ही देन हैं । खाद्यान्नों का 75 प्रतिशत भाग केवल आठ प्रकार की प्रजातियों से ही उपलब्ध होता है । जंगली पौधे औषधियों का एक बड़ा स्रोत हैं । ऋतुओं को स्थायित्व देने की क्षमता भी वनों में से यह सिद्ध हो चुका है कि घोड़े के खुर के आकार के जंगली केकड़े के शरीर से एक विशेष प्रकार का रस स्रावित होता है, जो शरीर में पनपने वाले रोगाणुओं को नष्ट कर डालता है ।

समुद्र में पाये जाने वाले ब्रायोजोआ जीव के रसों से कैंसर प्रतिरोधक विनिर्मित किया जा सकता है । मैक्सीको में जंगली मक्के की एक विशिष्ट प्रजाति पर किये गये शोध-परीक्षणों से इस बात का पता चलता है कि इसमें रोग-निरोधक क्षमता होती है । लेकिन अब सारे विश्व में उसे कहीं नहीं देखा जा सकता है । वनों के कटते चले जाने से उसकी प्रजाति भी लुप्त होती चली गयी ।

विज्ञान की नव विकसित परिस्थिति के विशेषज्ञों के कथनानुसार प्रकृति में गतिमान जीवन (मनुष्य, जीव-जन्तु, पशु-पक्षी), स्थिर जीवन (पेड़-पौधे) और जीवन के सहयोगी घटकों (भूमि, जल, वायु) तीनों के मध्य एक विशेष प्रकार का साम्य-सहयोग एवं संतुलन बना हुआ है । तीनों एक ही जंजीर में कसी हुई कड़ियों की भाँति अपनी सामर्थ्य एवं अस्तित्व का परिचय देते हैं । इसी सूत्र के आधार पर समूची विश्व व्यवस्था सुसंचालित होती दृष्टिगोचर हो रही है । यदि इनमें से एक भी कड़ी टूट जाय तो समूचा धरातल ही अस्त-व्यस्त होकर अपना अस्तित्व गँवा बैठेगा ।

कभी मारीशस के जंगलों में केल्वेरिया पेड़ पर बत्तख की आकृति का डोडो नाम का एक पक्षी रहता था । वह अन्य पक्षियों की तरह उड़ नहीं पाता था । इस मजबूरी का फायदा उठाकर यूरोप के आक्रान्ताओं ने उनका शिकार करना आरम्भ कर दिया । आज से लगभग 300 वर्ष पूर्व जब आखिरी डोडो की जीवन लीला समाप्त हो गयी तो अंग्रेजी में 'डैड एज डोडो' वाली कहावत बहुत चर्चित हो गया । फलतः केल्वेरिया की संख्या में अप्रत्याशित कमी आती चली गयी । पेड़ों के निरन्तर घटते-घटते स्थिति यहाँ तक आ पहुँची कि 1970 में इस प्रजाति के मात्र 1 पेड़ ही दुनियाँ में शेष रह गये । केल्वेरिया की वंश वृद्धि में डोडो पक्षी का विशेष योगदान रहता था ।

विस्कांसिन यूनिवर्सिटी के वैज्ञानिक प्रो. ए.स्टेनले के अनुसार केल्वेरिया के बीजों के ऊपर एक कड़े छिलके का कवच चढ़ा होता है जो नमी को अन्दर की ओर जाने से रोकता है, इसलिए अंकुरण की क्रिया सम्पन्न नहीं हो पाती । डोडो पक्षी की शारीरिक संरचना ही कुछ विचित्र तरीके की होती हैं । उस की अंतड़ियों में कुछ पत्थर मिले रहते हैं, जो डोडो द्वारा इन बीजों के खाये जाने पर पेट में पत्थर और अम्ल की संयुक्त क्रिया से घिस कर छिलके को पतला कर देते हैं । बाहर आकर अंकुरित होने में बीजों को आसानी होती है ।

प्रो. स्टेनले ने डोडो को कैल्वेरिया के बीज खिलाकर न केवल उस पेड़ की वंशावली को जीवित रखा है वरन् अभिवृद्धि का अभियान भी बड़ी तेजी से चलाया है । इस पक्षी की उपयोगिता एवं महत्ता को
देखते हुए अब डोडो को मारीशस का राष्ट्रीय पक्षी घोषित किया गया है ।
    

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