आयुर्वेद का व्यापक क्षेत्र

अग्नि

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देहाग्नि की महत्ता :-
 
मनुष्य के शरीर की आयु, वर्ण, बल, स्वस्थता, उत्साह, शरीर की वृद्धि, कान्ति, ओज, तेज, अग्नियाँ और प्राण ये सभी देह की अग्नि (पाचक अग्नि) के प्रबल होने पर ही स्थिर रहते हैं ।। यदि जठराग्नि शांत हो जाये (नष्ट हो जाय) तो मनुष्य की मृत्यु हो जाती है और जठराग्नि में विकृति आ जाय तो मनुष्य रोगी हो जाता है ।। इसलिये अग्नि को आयु, वर्ण, बल आदि का मूल कहा गया है ।।

अग्नि प्रकार :-  अग्नि के १३ प्रकार हैं

     १. पाचकाग्नि या जठाराग्नि
     २. सात धातवाग्नि
     ३. पाँच भूताग्नि


अग्नि के कार्य :-

प्रतिक्षण, शारीरिक धातुओं का क्षय होता रहता है ।। उस क्षय की पूर्ति के लिये आहार की आवश्यकता होती है ।। जब आहार द्रव्य पाचकाग्नि द्वारा पचित होता है, तब रस धातु का निर्माण होता है और इसके बाद धातुओं की सात धात्वाग्नियों द्वारा पाचन होकर पोषण रूप बनता है, जिनके द्वारा शरीर का पोषण आयु, बल, वर्ण, कान्ति आदि की स्थिति बनी रहती है ।। किन्तु जब पाचकाग्नि में ही विकृति आ जाती है तो विकृत रस के निर्माण होने पर सभी धातुएँ विकृत हो जाती है ।।

जठाराग्नि का महत्त्व :-


जो अन्न शरीर धातु, ओज, बल और वर्ण आदि का पोषक है उसमें अग्नि (जठाराग्नि) ही प्रधान कारण है क्योंकि अपच आहार से इस आदि धातुओं की उत्पत्ति उचित रूप से नहीं हो पाती ।।

जठाराग्नि के कार्य :-


खाये हुये आहार को आदान कर्म (ग्रहण करने वाली) प्राण वायु कोष्ठ (आमाशय) में ले जाती है ।। आमाशय में जब अन्न प्रविष्ट हो जाता है तो आमाशयस्थित द्रव (क्लेदल कफ़) द्वारा उसका संघात (कड़ापन) छिन्न- भिन्न हो जाता है ।। तथा क्लेदल कफ़ में वर्तमान स्नेहांश से वह आहार कोमल हो जाता है ।। फिर समान वायु से प्रेरित उदर की अग्नि (पाचकाग्नि) प्रबल होकर उचित समय पर सम मात्रा में खाये गये उस अन्न को आयु आदि की वृद्धि के लिये उचित रूप से पकाती है ।। जिस प्रकार एक पात्र में चूल्हे के ऊपर रखा हुआ जल और चावल को पकाकर बाह्याग्नि भात को पकाती है ।। उसी प्रकार आमाशय में रहने वाले आहार को आमाशय के अन्धःप्रदेश में रहने वाली पाचकाग्नि उचित रूप में पकाकर रस एवं मल को उत्पन्न करती है ।।

भूताग्नि का कार्य-


भोजन द्रव्य पंचभौतिक है ।। फिर भी जिसमें पार्थिव गुण अधिक होते है उन्हें पाथव कहते हैं ।। इस प्रकार पाथव आहार पाथवोष्मा, आप्य आहार की आप्योष्मा, आग्नेय आहार की आग्नेयोष्मा, वायवीय आहार की वायोष्मा और नाभस आहार की नाभोष्मा, शरीर के पाँच प्रकार की ऊष्माओं की अर्थात् पंचभौतिक देह की पाथवोष्मा को पंचभौतिक आहार की पंचभौतिक आहार की आपोष्मा, पंचभौतिक शरीर की आप्योष्मा को, पंचभौतिक आहार की आग्नेयोष्मा पंचभौतिक देह की आग्नेयोष्मा को, पंचभौतिक आहार की वायव्योष्मा पंचभौतिक देह की वायव्योष्मा को, तथा पंचभौतिक आहार की नाभयोष्मा पंचभौतिक देह की नाभयोष्मा को पुष्ट करती है ।। अतः इस पंचभौतिक देह द्रव्य का पोषण पंचभौतिक आहार (भोजन) द्रव्य से होता है । पोषण का क्रम यह है कि वह पंचभौतिक आहार द्रव्य में जो पाथव आहार है, वह देह के पाथव का और जो आप्य द्रव्य है वह शरीर के आप्य अंश का पोषण या वृद्धि 'सर्वदा सवर्ण भावानां सामान्यं वृद्धि कारणम्' के नियम से करता है । इस प्रकार पाथवादि आहार द्रव्य का पाचन या पोषण होने के बाद वह आहार द्रव्य शरीर के अनुकूल हो जाता है और आहार रस की उत्पत्ति होती रहती है ।।

इस रस से फिर क्रमशः रस इत्यादि धातुओं की अपनी- अपनी अग्नियों द्वारा पाचन होता है और इन धात्वाग्नियों द्वारा पाचन होने के बाद वह रस उस धातु के सात्म्य हो जाता है और उस धातु में मिश्रित हो जाता है या शोषित कर लिया जाता है ।। इस प्रकार क्रमशः सभी धातुओं की या एक ही बार पाचन होने पर उस धातुओं की वृद्धि होती जाती है ।।

पाचकाग्नि :-

महास्त्रोतस् में क्रियाशील दीपन- पाचन स्राव, जीवन- रसायन - धर्म या आग्नेय द्रव्य तथा इनके साथ- साथ सदा विद्यमान ऊष्मा इन सबको समवेत रूप में 'पाचकाग्नि' कहा गया है ।।

धान्वन्तर सम्प्रदाय ने इसके द्वारा होने वाले अग्निकर्म (जीव रसायन क्रिया) का विशेष महत्त्व प्रतिपादित करते हुये इसे पाचनकर्म करने वाली अग्नि (पाचकाग्नि) कहा है ।। आग्नेय सम्प्रदाय ने इसी के भौतिक- आग्नेय द्रव्यमय रूप को यथायोग्य निर्धारित करने के लिए इसे 'पचाने वाला प्राणिज द्रव्य विशेष' पाचक- पित्त कहकर सम्बोधित किया है ।। वास्तविकता यह है कि दोनों एक हैं और पाचक पित्त ही पाचकाग्नि है ।।

रसाग्नि-

रस धातु में स्थित 'पित्तोष्मा' को रसाग्नि कहा गया है ।। रसाग्नि से वे 'पाचनांश और ताप' अभिप्रेत है जो देहपोषक रस में रहते हुये कुछ निश्चित रासायनिक क्रियायें सम्पन्न करते है । ये पाचनांश और इनकी क्रियाओं के लिए अपेक्षित ताप, इन दोनों का समवेत रूप रसाग्नि है ।। जब अन्नरस में नाना भौतिक आहार द्रव्यों के साथ- साथ गयी हुई भूताग्नियाँ, पाचकाग्नि के प्रभाव से प्रदीप्त होकर, उस अन्नरस को 'देहधातुओं का सजातीय' बना देती हैं, तब वह अन्नरस 'देहपोषक रस' कहलाता है ।।

रसाग्नि कर्म और इसके परिणाम :-

रसाग्नि या 'रसगत पाचनांश और ऊष्मा' का क्रियाक्षेत्र देहपोषक रस या रस धातु है ।। रसाग्नि शब्द से अभिहित पूर्वोक्त पाचन द्रव्य रस धातु पर विविध अग्निकर्म या रासायनिक क्रियाए करते हैं ।। आयुर्वेद के क्रिया शरीर विशारदों का मत रहा है कि इन रस धातुगत रसायन- क्रियाओं के या रसाग्नि कर्म के परिणाम स्वरूप देहपोषक रस के प्रसाद धातु और किट्ट ये तीन रूपान्तर हो जाते हैं ।। प्रसाद रूप वह, जो कालान्तर में रस उत्कृष्टतर धातु रक्त या रुधिर का रूप ग्रहण कर लेता है, धातु रूप वह जो स्वरूप में स्थायी रस धातु के रूप में परिणत होता है और किट्ट रूप वह जिसे हम स्थूल शेष्मा कहते हैं ।। रक्ताग्नि आहार द्रव्यों से उत्पन्न 'अन्नरस' जब देह जातीय बनकर रसाग्नि पाक के उपरान्त रस धातु बन जाता है और रक्त में मिश्रित होकर तद्रूप हो लेता है तब इसका रक्ताग्नि से पाक होता है ।।

रक्ताग्नि-

रक्तगत पित्तोष्मा है अर्थात् रक्त में विद्यमान भिन्न- भिन्न प्रकार के पाचनांश और उनकी क्रियाओं के लिए आपेक्षित ताप का समवेत रूप रक्ताग्नि कहा जा सकता है ।।

रक्ताग्नि के कार्य-

रक्ताग्नि द्वारा रक्त का पाक कुछ काल तक होता रहता है, और इसके प्रसाद, धातु और किट्ट तीन प्रकार के अंशों का प्रादुर्भाव होता है ।। प्रसाद- रूप अंश से उत्तर धातु- मास के उपादान बनते हैं ।। धातु रूप भाग वह लालरक्त, श्वेत रक्त और चक्रिकाओं के रूप में यकृत, प्लीहा, मज्जा के भीतर प्रस्तुत होता है ।। किट्ट भाग से पित्त की उत्पत्ति होती है जो लोहित कणों के टूटने और रक्त रंजक के विघटित होने पर पतले रंजक द्रव्य में तदनन्तर यकृत पित्त स्राव के रूप में परिणत होकर अन्त्र के भीतर परिस्रुत होता रहता है ।।


मांसाग्नि- रसाग्नि और रक्ताग्नि के समान मांसाग्नि भी मांसगत पित्तोष्मा है,  अर्थात् यह विशिष्ट प्रकार के पाचनांशों और उनकी क्रियाओं के लिए अपेक्षित ताप का समवेत रूप है ।।


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