आयुर्वेद का व्यापक क्षेत्र

आयुर्वेद का प्रयोजन

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विधाता की सर्वोत्कृष्ठ सृष्टि मानव है, और मानव इहलोक में पुरुषार्थ प्राप्ति के लिए स्वभावतः ही प्रयुक्त होता है, और पुरुषार्थ प्राप्ति के लिए आयुर्वेद की आवश्यकता है, और दीर्घायु आरोग्य के संरक्षण से ही प्राप्त हो सकती है ।।

अतः आरोग्य संरक्षण तथा अतिनाशन के लिए, दीर्घायु रहने के सिद्धान्त, गुण, कर्म विशेष आदि का गुण- कर्म एवं उनका अवयवी सम्बन्ध अर्थात् समवाय आदि का विशेष ज्ञान आयुर्वेद से ही संभव है, और यह सैद्धान्तिक रूप से शाश्वत है ।। इसके विपरीत विज्ञान के सिद्धान्त समय- समय पर परिवर्तित होते हैं, वह विज्ञान शाश्वत एवं सफल नहीं होता है ।।

आयुर्वेद ने अपने अपरिवर्तनीय सिद्धान्तों के आधार पर ही नित्य एवं सत्य विज्ञान सिद्ध किया है ।। यद्यपि वह विश्व का आदि चिकित्सा विज्ञान है, परन्तु भारतीय ऋषियों द्वारा परिभाषित एवं प्रकाशित होने के कारण ही यह भारतीय चिकित्सा विज्ञान कहा जाता है ।।

आयुर्वेद के सिद्धान्त शाश्वत सत्य है ।। सत्य से लाभ उठाने का अधिकार मानव मात्र को है-

नात्मार्थ नाऽपि कामार्थम् अतभूत दयां प्रतिः
                        वर्तते यश्चिकित्सायां स सर्वमति वर्तते ।। - (च० चि० १/४/५८)

जो अर्थ तथा कामना के लिए नहीं, वरन् भूत दया अर्थात् प्राणिमात्र पर दया की दृष्टि से चिकित्सा में प्रवृत्त होता है, वह सब पर विजय प्राप्त करता है । इससे यह पूर्णरूपेण प्रमाणित होता है कि आयुर्वेद प्राणिमात्र के हितार्थ ही प्रकाशित एवं पूर्ण नियोजित है ।।

किमथर्मायुर्वेदः - (च०सू० ३०/२६)

अर्थात् आयुर्वेद का क्या प्रयोजन है? इस संदर्भ में निहित है कि-

'प्रयोजनं चास्य स्वास्थस्य स्वास्थ्य रक्षणमातुरस्य विकार प्रशमनं च !'

अर्थात् इस आयुर्वेद का प्रयोजन पुरुष के स्वास्थ्य की रक्षा करना और रोगी व्यक्ति के रोग को दूर करना है ।।

इस संदर्भ में आयुर्वेद का प्रयोजन सिद्ध करते हुए कहा गया है-

आयुः कामयमानेन धर्माथ सुखसाधनम् ।।
                        आयुर्वेदोपदेशेषु विधेयः परमादरः ॥      - (अ० सं० सू०- १/२)

सिद्धान्त एवं मूल उद्देश्य-

भारतीय विद्वानों का सर्वसम्मत विचार यह है कि आयुर्वेद की जो कुछ विशेषताएँ हैं, वे मौलिक एवं आधारभूत सिद्धान्तों पर ही आधारित है ।। वही आयुर्वेद की मूल भित्ति या रीढ़ कही गई है ।।

इसका स्पष्ट कारण यह है कि इसके सिद्धान्त एवं मूल उद्देश्य सर्वथा अक्षुण्ण-अपरिवर्तनीय हैं, जो इस प्रकार है-

१-  त्रिगुण ''सिद्धान्त'' ।।
२- 
पञ्चमहाभूत
३- 
त्रिदोष
४- 
सप्तधातु एवं ओज
५- 
द्रव्यादि षट् पदार्थ
६- 
द्रवगत (रसादि पञ्चपदार्थ)
७- 
आत्मा परमात्मा
८- 
चरकानुमत चतुर्विंशति एवं सुश्रुत मतानुसार पञ्चविंशति तत्त्व
९- 
पुनर्जन्म एवं मोक्ष

आयुर्वेद का सिद्धान्त ही रोगी व्यक्ति के रोग को दूर करना एवं स्वस्थ व्यक्ति के स्वास्थ्य को समुचित रूप से बनाये रखना है ।। इसलिए आयुर्वेद को व्यावहारिक रूप देने हेतु उसको कई भागों या अंगों में विभाजित किया गया, जिससे संपूर्ण शरीर का यथावत अध्ययन एवं परीक्षण कर समुचित रोगों की चिकित्सा की जा सके तथा हर दृष्टिकोण से सर्वसुलभ हो सके ।। कालान्तर में आयुर्वेद को जनोपयोगी बनाने हेतु ही उसके आठ अंग किये गये, जो इस प्रकार हैं-

आयुर्वेद के अंग

१-  काय चिकित्सा
२-  शालक्य तंत्र
३-  शल्य तंत्र
४-  अगद तंत्र
५-  भूत विद्या
६-  कौमारभृत्य
७-  रसायन
८-  बाजीकरण

इस विभाजन का कारण ही शरीर को उचित आरोग्य प्रदान करना था ।। आयुर्वेद का प्रयोजन मुख्य रूप से धातु साम्य से है, जिसका अर्थ है, आरोग्य उत्पादन करना ।। मानव या प्राणिमात्र सृष्टि के आरंभ से ही अपने हित- अहित का ज्ञान रखता आया है ।। अपनी आयु की वृद्धि और हानि करने वाली वस्तुओं का ज्ञान भी रखता आया है तथा उत्तरोत्तर नवीन- नवीन उपायों का अवलम्बन या अनुसंधान करता आया है ।।

इस प्रकार आयु और वेद दोनों सदैव रहे हैं और रहेंगे ।। अर्थात् आयुर्वेद का मुख्य प्रयोजन (ही मानव मात्र को रोग रहित करना, तथा जो रोगी है, उसके रोगों की चिकित्सा एवं मानव के स्वास्थ्य का संरक्षण करना है ।। अर्थात् ऐसी विद्या का उपदेश जिससे रोग न हो ।) आतुर विकार प्रशमनं तथा स्वास्थ्य रक्षण जो था वह है, और त्रिसूत्र आयुर्वेद के रूप में, प्रथम सिद्धान्त के रूप में प्रचलित हुआ, जिससे रोग का हेतु, लक्षण एवं औषध जानकर रोग का शमन किया जा सके।

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