आयुर्वेद का व्यापक क्षेत्र

देह प्रकृति

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प्रत्येक मनुष्य का शरीर भिन्न- भिन्न आकार- प्रकार एवं परिमाण वाला होता है । इसके अतिरिक्त प्रत्येक मनुष्य में शारीरिक एवं मानसिक गुणों की दृष्टि से भी भिन्नता पाई जाती है ।। शुक्र, शोणित तथा गर्भवती के आहार- विहार तथा गर्भाशय एवं ऋतु दोष होता है, उससे बालक की प्रकृति बनती है ।।

मनुष्य का स्वभाव उसके शरीर की आकृति एवं उसके गुण आदि का स्वाभाविक रूप से जो निर्माण होता है, सामान्यतः उसे ही प्रकृति कहा जाता है ।।

प्रकृति शब्द का अर्थ यद्यपि अनेक रूपों में मिलता है, किन्तु 'प्रकरोति इति प्रकृतिः' -इस व्युत्पत्ति के अनुसार हमें जो प्रकृति शब्द का बोध होता है ।। वह मात्र मानव स्वभाव की ओर ही संकेत करता है ।। अतः प्रकृति शब्द से अनेक अर्थों को न ग्रहण करते हुए, मनुष्य का स्वभाव, मानव शरीर का आकार- प्रकार एवं परिमाण के रूप में ही ग्रहण करना चाहिए ।।

आयुर्वेद के विद्वानों एवं प्राचीन आचार्यों ने भी मनुष्य के विशिष्ट शारीरिक स्वरूप एवं मानसिक स्वभाव को ही प्रकृति की संज्ञा प्रदान की है ।।

प्रकृति शब्द के इस अर्थ को दृष्टिगत रखते हुए मूल रूप से प्रकृति के दो भेद किये गये हैं ।। यथा-

     १.  गर्भ शरीर प्रकृति
     २.  जात शरीर प्रकृति


इसमें गर्भ शरीर प्रकृति का निर्माण गर्भधारण होने के समय ही हो जाता है और जात शरीर प्रकृति का निर्माण प्रसव होने के पश्चात् अथवा बालक का जन्म होने के बाद होता है ।।

दोषों का प्रकृति से सम्बन्ध- गर्भ शरीर में प्रकृति का जो निर्माण होता है, उसका प्रभाव केवल गर्भकाल तक ही सीमित नहीं रहता अपितु मनुष्य की आयु पर्यन्त वही प्रकृति उसके साथ रहती है ।। गर्भ शरीर प्रकृति का स्थायित्व इतना अधिक है कि बाद में अनेक प्रयत्न करने पर भी उसमें परिवर्तन सम्भव नहीं होता ।।

आयुर्वेदाचार्य का ऐसा मानना है कि गर्भ शरीर प्रकृति का निर्माण करने में दोष ही सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण होते हैं ।। दोषों के द्वारा गर्भ शरीर में प्रकृति निर्माण किस प्रकार होता है, इसका उल्लेख सुश्रुत में इस प्रकार है-

शुक्र शोणित संयोग यो भवेत् दोष उत्कट प्रकृतजायते तेन ।  - (सु.शा.अ. ४)

अर्थात् शुक्र और शोणित के संयोग होने पर जिस दोष की अधिकता होती है, उसी के अनुसार प्रकृति का निर्माण होता है ।। इसी सम्बन्ध में आचार्य वाग्भट्ट ने अष्टांगहृदय में अपना मत इस प्रकार व्यक्त किया है ।।

शुक्रार्त्तवस्थैजन्मादौ विशेषेण विषक्रमेः,
        तैश्च तिस्रः प्रकृतयोः हीनमध्योत्तमा पृथक ।।
                                 समधातुः समस्तासु श्रेष्ठा निंधा द्विदोषजाः ॥  - (अ.ह.सू.अ. १)

अर्थात् जिस प्रकार विष से विषकृमि उत्पन्न हो जाता है, उसी प्रकार जन्म के समय में शुक्र और आर्तव में स्थित वात, पित्त, कफ़ से मनुष्यों की तीन प्रकृतियाँ बन जाती हैं ।।

ये प्रकृतियाँ वात से हीन, पित्त से मध्यम तथा कफ़ से उत्तम होती हैं ।। जब वात, पित्त, कफ़ ये तीनों समान होते हैं तो सम प्रकृति होती है ।। यह सम प्रकृति इन सब में श्रेष्ठ है तथा दो दोषों के संसर्ग से बनी प्रकृतियाँ निन्दित होती हैं ।। शुक्र और शोणित के संयोग के समय दोष विशेष की अधिकता निम्न बातों पर आधारित होती है-

     १. शुक्र शोणित काल की प्रकृति- अर्थात् उस समय दोष विशेष का आधिक्य ।। उस समय ऋतु अहोरात्र आदि काल में संचित या प्रकुपित दोष का
         प्रभाव भी तत्कालीन गर्भ को प्रभावित करता है ।।
     २. शुक्र शोणित संयोग के समय तत्कालीन गर्भाशय की प्रकृति, प्रभाव अथवा उस समय गर्भाशय में स्थित दोष का प्रभाव गर्भ के ऊपर पड़ता है ।।
     ३. शुक्र शोणित संयोग के पहले माता के आहार- विहार की प्रकृति या उसके कारण उत्पन्न दोष का प्रभाव गर्भ पर पड़ता है ।।
     ४. शुक्र शोणित के संयोग के समय तत्कालीन पंचमहाभूतों की प्रकृति का प्रभाव गर्भ शरीर पर पड़ता है ।।
     ५. शुक्र शोणित के संयोग के समय तत्कालीन मानसिक स्थिति का गर्भ शरीर की प्रकृति को प्रभावित करती है ।।


- उपर्युक्त समस्त प्रकार की स्थिति और वातावरण के अनुसार जिस दोष की बहुलता होती है उसी के अनुसार गर्भ शरीर की प्रकृति का निर्माण होता है ।। दोषों की न्यूनाधिकता के कारण ही मनुष्यों की प्रकृति में भिन्नता पाई जाती है ।। इसलिए दोषों को प्रकृति के मूल कारण के रूप में मानने से इनकार नहीं किया जा सकता ।।

प्रकृति के प्रकार

प्रकृति के प्रकार- आयुर्वेद के अनुसार दोषों द्वार निमित्त होने वाली प्रकृति को सात प्रकार में विभाजित किया गया है ।।

''सप्त प्रकृतयोः भवन्ति दोषेः पृथग द्विशः समस्तैश्च''

     १.  पृथक दोषों से उत्पन्न प्रकृति- तीन प्रकार की होती है- वातज, पित्तज, कफज ।।
     २.  संसर्गजन्य या द्वन्द्वज- दो दोषों के संयोग से यह भी तीन प्रकार की होती है ।।
     ३.  सन्निपातिक प्रकृति- इसका निर्माण तीनों दोषों की समानता से होता है ।।


इस प्रकार दोषों द्वारा सात प्रकार की प्रकृति का निर्माण होता है ।। इन सात प्रकार की प्रकृतियों में समान दोष वाली प्रकृति श्रेष्ठ मानी जाती है ।।

विषजातो यथा कीटों न विषेण विपद्यते ।।
      तद्यत प्रकृतयो भर्त्यन शक्नुवन्ति बाधितुम ॥

अर्थात् जिस प्रकार विष में उत्पन्न हुआ कीड़ा विष के द्वारा विपत्ति को प्राप्त नहीं होता, उसी प्रकार प्रकृति भी मनुष्य को बाधित करने में समर्थ नहीं है ।।

१. श्लैष्मिक प्रकृति के लक्ष


‍महर्षि चरक के अनुसार शेष्मा, स्निग्ध, श्क्ष्ण, मृदु, मधुर, सान्द्र, मंद, स्थिर, स्तम्भित, गुरु, शीत, पिच्छिल और अच्छे गुण प्रधान होता है ।। इन गुणों के कारण शेष्मा प्रकृति वाले पुरुष स्निग्ध अंग वाले, श्क्ष्ण अंग वाले, गौर वर्ण वाले, अधिक शुक्रयुक्त, व्यवसाय सक्षम और अधिक संतान वाले, सुगठित और स्थिर शरीर वाले, मंद चेष्टा, आहार- विहार वाले, परिपुष्ट और सम्पूर्ण अंग वाले, विलम्बपूर्वक आरम्भक, क्षोभ और विकार वाले, सारवत स्थिति वाले, अल्पक्षुधा, अल्पसन्ताप और अल्पस्वेद वाले चिकनी और सुगठित सन्धिवाले, प्रसन्न मुख, स्निग्ध वर्ण और मधुर स्वर वाले तथा क्षमाशील, भाग्यवान, कृतज्ञ, स्थायी स्वभाव वाले, श्रद्धालु, गुरु परम्परा को मानने वाले सरल स्वभाव के मनुष्य होते हैं ।।

२. पित्त प्रकृति के लक्ष



‍पित्त सामान्यतः उष्ण, तीक्ष्ण, विस्र, अम्ल और कटु गुण प्रधान होता है ।। इन गुणों के आधार पर पित्त प्रकृति वाले मनुष्य उष्ण गुण के कारण गर्मी को सहन न करने वाले, ऊष्णमुख तथा सुकुमार शरीर वाले, अत्यधिक मस्सा और तिल वाले, पिडि़काओं से युक्त अधिक भूख और प्यास वाले, शीघ्र ही बालों का झड़ना, बालों का सफेद होना, बालों पर रूसी पड़ जाना आदि दोषों से युक्त और प्रायः कोमल अल्प कपिल श्मश्रु लोम केश वाले होते हैं ।। इनकी मध्यम, आयु, मध्यम बल से अनूदित तथा झंझटों से दूर, क्रोध के कारण इनका चेहरा शीघ्र ही तमतमा जाता है ।। पित्त के तीक्ष्ण गुण के कारण पित्त प्रकृति वाले मनुष्य तीव्र पराक्रम वाले, तीक्ष्ण अग्नि वाले, अधिक भोजन करने वाले तथा सभी कष्टों को सहन करने वाले होते हैं ।। पित्त के द्रव गुण के कारण मृदु सन्धि और मांस वाले अधिक स्वेदादि विसर्जन करने वाले इस प्रकार विभिन्न गुणों के योग से पित्त प्रकृति वाले मनुष्य मध्यम बल वाले, मध्यम आयु वाले, मध्यम ज्ञान- विज्ञान वाले, मध्यम पित्त वाले तथा मध्यम साधन वाले होते हैं ।।

३. वात प्रकृति के लक्षण


वात के गुणों के आधार पर मनुष्य में प्रकृति का निर्माण होता है ।। वायु सामान्यतः रुक्ष, शीत, लघु, सूक्ष्म, चल विशद और खर गुण वाला होता है ।। वायु की रुक्षता के कारण वात प्रकृति वाले मनुष्य रुक्ष, अल्प और दुर्बल शरीर वाले, रुक्ष, कर्कश, भिन्न और जर्जर स्वर वाले तथा जागरूक होते हैं ।। पर प्रायः कद में लम्बे, बातुल (बढ़ा- चढ़ाकर बात करने वाले) स्वप्नों के संसार में जीवित रहते हैं ।। चल गुण के कारण अवस्थित सन्धि अक्षि, भू, कर्ण, ओष्ठ, जिह्वा, सिर, कन्धे और हाथ- पैर वाले होते हैं ।। बहल गुण होने के कारण अधिक प्रलाप वाले ।। शीघ्र कुपित होने वाले शीघ्र प्रसन्न होने वाले, सुनी हुई बात को ग्रहण करने वाले और अल्प स्मृति वाले होते हैं, स्फुटित अंग अवयव वाले सदैव सन्धियों के शब्द को सुनने वाले मनुष्य होते हैं ।। इस प्रकार उपर्युक्त गुणों के योग से वात प्रकृति वाले मनुष्य प्रायः अल्प बल वाले, अल्पायु, अल्प सन्तान वाले, अल्पधन साधन वाले होते हैं ।। इस प्रकार दोषों की प्रधानता के कारण प्रकृति का निर्माण होता है- इसमें वात प्रकृति हीन, पित्त प्रकृति मध्य तथा शेष्म प्रकृति मनुष्यों की उत्तम प्रकृति होती है ।।


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