आयुर्वेद का व्यापक क्षेत्र

कफ

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कफ़ की निरक्ति

दिवाद्वि गण में पठित श्लिष आलिंग ने दो चीजों को मिलाने वाली इस धातु से 'कृदन्तविहित' प्रत्यय द्वारा 'श्लिष्यतेऽनेनेति श्लेष्मा' जो मिलाता है वह श्लेष्मा कहलाता है ।। इस व्युत्पत्ति से श्लेष्मा शब्द बनता है।

''केन जलेन फलति इति कफः''

अर्थात्  जिस जल से जो फलीभूत होता है, अथवा जिसमें जल होता है, उसको कफ़ कहते हैं ।। इस व्युत्पत्ति से कफ़ शब्द बनता है।

''यश्चाश्लिष्य कफः सदा रसयति प्रीणयति सोऽयं कफः ।''

अर्थात् जो परस्पर विघटित अणुओं को आपस में संश्लिष्ट करके उन्हें मिलाने वाला होता है, वह कफ़ कहलाता है ।। शरीर के विभिन्न अवयवों को रस के द्वारा उपश्लेषण तथा पोषण करने वाला श्लेष्मा ही होता है ।। अर्थात् श्लेष्मा के द्वारा शरीर में जो भाव उत्पन्न किये जाते हैं, वे शरीर के पोषण के लिए आवश्यक होते हैं ।। प्राकृत श्लेष्मा के द्वारा जो शरीर को पोषण प्राप्त होता है, वह शरीर की पुष्टि स्थिरता दृढ़ता के लिए अत्यन्त आवश्यक है।

श्लेष्मा को शरीर के बल का आधार माना गया है ।। अर्थात् शारीरिक बल की पूर्ति के लिए कफ़ की विशेष उपयोगिता है ।। इसी तथ्य को निरूपित करते हुए महर्षि चरक ने लिखा है-

''प्राकृतस्तु बलं श्लेष्मा विकृतो मल उच्यते'' - (च०सू०)


कफ़ का स्वरूप

वस्तुतः जो श्लेष्मा हमें स्थूल रूप से दिखाई देता है, केवल वही उसका स्वरूप नहीं है ।। अपितु जिन गुण और कर्मों के आधार पर शरीर में व्याप्त होकर शरीर का उपकार करता है, वे गुण और कर्म ही उसके स्वरूप के प्रतिपादक है ।। सामान्यतः जो लक्ष्ण, मृदु, स्थिर, श्वेत, स्निग्ध, सान्द्र और गुरु गुण वाला होता है, वही श्लेष्मा कहलाता है और यही शरीर को धारण करता है ।। यद्यपि श्लेष्मा पंचभौतिक है, तथापि इसमें जल महाभूत की प्रधानता होती है।

कफ के गुण एवं कर्म

     गुरूशीतो मृदु स्निग्धः मधुरः पिच्छिलस्तथा ।।
श्लेष्मणः प्रथमं यानि विपरीत गुणैर्गुणाः ॥


अर्थात्-गुरू, शीत, मृदु, स्निग्ध, मधुर और पिच्छिल ये श्लेष्मा के गुण होते हैं ।। इसके विपरीत गुण वाले द्रव्यों का सेवन करने से श्लेष्मा का शमन होता है ।।

स्नेहोबन्धः स्थिरत्वं च गौरवं वृषता बलम् ।।
                           क्षमाधृतिश्लोभश्च     कफकमार्विकारजम् ॥     -  (च०सू०१८/५१)

स्नेह बन्ध, दृढ़ता, गुरुता, वृषता, बल, क्षमा, धैर्य और अलोभ ये कफ़ के प्राकृत कर्म होते हैं।

कफ स्वभावतः स्निग्ध गुण वाला होता है और अपनी स्निग्धता के कारण शरीर को निरंतर स्नेह प्रदान करता रहता है ।। इस स्नेह कर्म के द्वारा शरीर में स्निग्धता बनी रहती है और वायु की रूक्षताजनित विकृति शरीर में उत्पन्न नहीं होने पाती ।। स्नेह के द्वारा शरीर को पर्याप्त पोषण भी प्राप्त होता है ।। कफ़ का दूसरा कार्य शरीर के समस्त विघटित अणुओं को परस्पर संश्लिष्ट करना एवं उन्हें बाँधकर रखना है ।। श्लेष्मा के बंधन कर्म के द्वारा शरीर के प्रत्येक अवयव एक दूसरे से चिपके हुए रहते हैं, जिससे उनका स्थान भ्रंश नहीं होता ।। श्लेष्मा अपने स्थिर गुण के कारण शरीर को दृढ़त- स्थिरता प्रदान करता है ।। मुख्य रूप से मांस पेशियों की दृढ़ता श्लेष्मा के कारण ही होती है ।।

स्नेहमङ्गेषु सन्धीनां स्थैर्य बलमुदीर्णताम्
                                       करोत्यन्यान् गुणांश्चापि बलासः स्वाः सिराश्चरन ।।   - (सु०शा०७/११)

प्राकृत अवस्था में श्लेष्मा बल की पूर्ति करने वाला होता है ।। इसलिए कफ़ को बलकारक कहा गया है ।। कफ़ मंद गुण वाला होने से पित्त के तीक्ष्ण आदि गुणों का शामक होता है ।। कफ़ के द्वारा सात्विक भाव उत्पन्न होने से रजो दोष जनित तीव्रता कम होती है, जिससे मनुष्य के हृदय में क्षमा, धैर्य और अलोभ की वृत्ति का उदय होता है ।।

कफ़ के स्थान

यद्यपि संपूर्ण शरीर में श्लेष्मा व्याप्त रहता है, किन्तु कुछ स्थान नियत हैं, जहाँ विशेष रूप से पाया जाता है ।। इन विशिष्ट स्थानों में रहता हुआ श्लेष्मा अपने प्राकृत कर्मों को करता है ।।

उरः कण्ठशिरः क्लोमपवायार्मशयौ रसः ।।
                            मेदो घ्राणं च जिह्वा च कफस्य सुतरामुरः ॥ - (अ०स०सू०१२/३)

अर्थात् उरः प्रदेश, कण्ठ शिर, क्लोम पर्व (अंगुलियों के पोर ), रस मेद घ्राण (नाक) और जिह्वा ये कफ़ के स्थान है, उनमें भी उरः प्रदेश श्लेष्मा का विशेष स्थान है, अर्थात् अन्य स्थानों की अपेक्षा श्लेष्मा वक्ष प्रदेश में विशेष रूप से पाया जाता है ।।

श्लेष्मा के भेद

स्थान और कार्य की भिन्नता के आधार पर श्लेष्मा पाँच प्रकार का होता है ।। क्लेदक, अवलम्बक, बोधक, तर्पक और श्लेषक कफ़ ।।

''मेदः शिरः उरोग्रीवा सन्धिबाहुः कफाश्रयः ।।
                           हृदयं तु विशेषण शष्मणः स्थानमुच्यते ॥ ''  - (का.सू. २७-११)

१. क्लेदक कफ-  यह श्लेष्मा आमाशय में स्थित रहता है और खाये हुए आहार का क्लेदक करके उसे पचाने में सहायक होता है ।। आमाशय में क्लेदक कफ़ के कारण वहाँ जो पाक होता है, वह प्रथम अवस्था पाक कहलाता है ।। इस अवस्थापक के मधुर होने के कारण खाया हुआ छः रसों वाला आहार मधुर रस प्रधान होता है ।।

क्लैदकः सोऽन्नः संघात क्लेदनात् रसबोधनात् ।। - (आ.स.सू.१२/१५/१)

क्योंकि प्रथम अवस्था पाक में श्लेष्मा का उदीरण होने से उस आहार का तथा वहाँ पर हुए अवस्थापाक का रस भी स्वभावतः मधुर होता है ।। इस मधुर विपाक के कारण भोजन करने के बाद प्रारंभिक अवस्था में दो ढाई घंटे बाद तक आमाशय में मधुर और शीतल गुण वाले कफ़ की वृद्धि होती है ।। इसलिए भोजन के तत्काल बाद मनुष्य में आलस्य और निद्रा का प्रभाव देखा जाता है ।। इस प्रकार क्लेदक कफ़ के द्वारा आमाशय में प्रथम अवस्था पाक होता है ।। क्लेदक कफ़ का प्रकोप होने से अरूचि एवं मंदाग्नि आदि पाचन संबंधी विकार होते हैं ।।

२. अवलम्बक कफ़-  यह शरीर के हृदय प्रदेश में रहता हुआ हृदय और शरीर का अवलम्बन करता है ।। यह उर (छाती) में रहता है ।। यह वात प्राण वायु और पित्त साधक पित्त की सहायता से हृदय में सात्विक भावों को उत्पन्न करता है, तथा हृदय की प्राकृतावस्था में सहायक होता है ।। इसके क्षय व वृद्धि के कारण हृदय की गति हृदय संबंधी विभिन्न रोग तथा मानसिक भाव प्रभावित होते हैं ।।

''प्राकृतं तु बलं श्लेष्मा'' बल को ही आचार्यों ने ओज माना है तथा ओज का स्थान भी हृदय बतलाया है और यह श्लेष्मा भी हृदय में ही स्थित रहता है ।। अतः यह कफ़ ओज का पूरक माना जाता है ।। क्योंकि ओज एवं अवलंबक कफ़ के गुण- धर्मों में बहुत कुछ साम्य होता है ।।

३. बोधक कफ़-  जिह्वा में स्थिर रहने वाला यह जिह्वा के माध्यम से विभिन्न रसों का ज्ञान कराने में सहायक होता है ।। जिह्वा के प्राकृत रहने पर भी बोधक कफ़ की क्षय वृद्धि रस ज्ञान को प्रभावित करती है ।। इसलिए कई बार मनुष्य स्वस्थ होते हुए भी रसज्ञान करने में समर्थ नहीं होता ।। इसका कारण बोधक कफ़ का क्षय होता है ।।

''रसबोधनात् बोधको रसनास्थायी'' ।।

रसना इंद्रिय यद्यपि रस को ग्रहण करती है, परन्तु बोधक कफ़ उसके ज्ञान में सहायक होता है ।।

४. तर्पक कफ़-  यह सिर में रहता है और वहाँ से इंद्रियों का तर्पण करता है ।। यद्यपि आचार्य के वचनानुसार

''शिरः संस्थोऽक्षितपर्णात् तर्पकः''

अर्थात् अस्थि का तर्पण करने के कारण सिर में स्थित रहने वाला कफ़ तर्पक कफ़ कहलाता है ।। यह कफ़ सभी इंद्रियों का तर्पक करता है ।।

सिर में स्थित तर्पक कफ़ के द्वारा बुद्धि तथा उससे संबंधित स्मृति आदि अन्य भावों का तर्पक होता है ।। इस प्रकार तर्पक कफ़ के द्वारा सभी इंद्रियों एवं समस्त बौद्धिक भावों का तर्पण किया जाता है तथा मानसिक भावों को स्थिर बनाता है ।।

५. श्लेषक कफ़-  इसका स्थान मुख्य रूप से संधियों में बताया गया है ।। विशेष रूप से चल संधियाँ ही इसका स्थान है ।। संधियों में निरन्तर गति होने के कारण वहाँ स्नेह तत्व की आवश्यकता रहती है ।। स्नेह तत्व के बिना संधियों में प्राकृतिक रूप से गति नहीं होती और वेदना आदि विकार वहाँ उत्पन्न हो जाते हैं ।। श्लेषक कफ़ संधियों के आवश्यक स्नेहांश की पूर्ति करता है और उनके सुचारु रूप से संचालन में सहायक होता है ।। श्लेषक कफ का क्षय होने पर तज्जनित विकृति कारक परिणाम उत्पन्न होते हैं और उसकी पूर्ति हो जाने पर वहाँ विकृति दूर हो जाती है ।।

विशेष-कफ़ हमारे शरीरगत दोषों में ''वात- पित्त' से होने वाली व्याधियों में अपना विशिष्ट कार्य करता रहता है ।। यथा कफ़ श्ष्मानुबन्धित दोषों के कारण वृद्धिगत सभी स्रोतों को अधिक रूप से बन्द करते हुए चेष्टा का नाश, मूर्छा आना, वाणी वैषम्य, शब्दों का ठीक न निकलना, अटपटा बोलना आदि लक्षणों को दूर करता है ।।

क्षीण कफ़ के लक्षण

शरीर में क्षीण हुआ कफ़ भ्रम, उद्वेष्टन- अर्थात् रस्सी से बाँधने के समान अंग- उपांग तथा पिण्डलियों का जकड़ना, नींद का न लगना, शरीर का फूटना, परिप्लोष- अर्थात् संताप के कारण त्वचा में दाह, कम्प, धूमायन, कण्ठ की जलन, संधियों का ढीला पड़ना, हृदय का काँपना ,, हृदय, कंठ आदि कफाशय का सूना सा हो जाना ।।

वृद्ध कफ़ के लक्षण

शरीर में श्वेत वर्णता, शैत्य, स्थूलता, आलस्य, शरीर में भारीपन, शिथिलता, स्रोतों में रुकावट, मूर्च्छा, निद्रा, तंद्रा, श्वास, मुख से लार टपकना, अग्निमांध, सन्धियों की जकड़ जाना आदि विकार कफ़ के बढ़ने पर होते हैं ।। स्वेद ग्रन्थियों को भी प्रभावित करता है ।। भ्राजक पित्त पर अधिक गर्मी, तीव्र- धूप अग्नि सन्ताप आदि का प्रभाव पड़ने से उसमें वृद्धि होती है ।।


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