आयुर्वेद का व्यापक क्षेत्र

पंचमहाभूत

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भूत शब्द की निरुक्ति- भू+क्तः = भूतः ।

भू सत्तायाम् इस धातु में क्त प्रत्यय लगाकर भूत शब्द बनता है ।

भूत- अर्थात् जिसकी सत्ता हो या जो विद्यमान रहता हो, उसे भूत कहते हैं ।

भूत किसी के कार्य नहीं होते- अर्थात् किसी से उत्पन्न नहीं होते, अपितु महाभूतों के ये उपादान कारण होते हैं ।

किन्तु पंचभूत स्वयं किसी से उत्पन्न नहीं होते, इसलिए ये नित्य हैं । यथा-

१.       न जायतेऽन्यतो यन्तु यस्मादन्यत प्रजायते्
                               सगुणानां उपादानं तद्भूतम इति कश्यते्    -  (पञ्चभूत वि०)

    २.      यस्योत्पत्तिविनाशौ स्तः तन्नादिकारणं भवेत्
                         आदिकारणभूतानि नित्यानीत्यनुमीयते ।    -  (प०वि०)

महर्षि चरक ने भूतों को सुसूक्ष्म एवं इन्दि्रयातीत कहा है ।

अर्थाः शब्दादयो ज्ञेया गोचरा विषया गुणाः    -  (च० शा०१/३१)

पञ्चभूत कारण द्रव्य नित्य अतिसूक्ष्म एवं इन्द्रियातीत हैं ।

''महन्ति भूतानि महाभूतानि ।''

महान् भूतों को महाभूत कहते हैं ।

महत्त्व या स्थूलत्त्व आने के कारण इनकी महाभूत संज्ञा है ।

उक्त महाभूत संसार के सभी चल-अचल वस्तुओं में व्याप्त है, अतः इन्हें महाभूत कहते हैं ।

''इह हि द्रव्यं पञ्चमहाभूतात्मकम्''   - (अ०सं०सू०१७/३)

इस पृथ्वी के समस्त जीवों का शरीर और निजीर्व सभी पदाथर् पंच महाभूतों द्वारा निमिर्त हैं ।

''सवर्द्रव्यं पाञ्चभौतिकमस्मिन्नथेर्''    - (च०सू० ३६)

अर्थात् संसार के समस्त द्रव्य पञ्चभौतिक है । आयुवेर्द का मुख्य प्रयोजन रोग प्रशमन और रोगी के स्वास्थ्य की रक्षा करना है; परन्तु जिस पुरुष के स्वास्थ्य की रक्षा की जाती है, वह पञ्चभितिक होता है । उसका आरोग्य-अनारोग्य पञ्चमहाभूत से है, तथा उसके विकारग्रस्त होने पर जो द्रव्य चिकित्सा हेतु प्रयुक्त किये जाते हैं, वे भी पञ्चभौतिक होते हैं । शरीर को धारण करने वाले दोष धातु और मलों की उत्पत्ति भी पञ्चमहाभूतों से ही होती है । अतः इस पृथ्वी पर जो सत्ता है सभी में पञ्चमहाभूतों का समावेश सम्पूर्ण रूप से सन्निहित है ।

पञ्चमहाभूतों की उत्पत्ति

प्रकृति का पुरुष से सम्पर्क होता है तो उससे सवर्प्रथम महत्तत्त्व या महान् की उत्पत्ति होती है- महत् से अहंकार । चूँकि प्रकृति त्रिगुणात्मिका होती है अतः उससे उत्पन्न हुए महत् तत्व तथा अहंकार भी त्रिगुणात्मक होते हैं ।

     १.  वैकारिक
     २.  तैजस
     ३.  भूतादि

तैजस अहंकार की सहायता से भूतादि अहंकार द्वारा पञ्च तन्मात्राएँ उत्पन्न होती है ।

भूतादेरपि तैजसहायात् तल्लक्षणान्येव
                      पञ्चतन्मात्राणि उत्पद्यन्ते .................... (सु०शा०१)

भूतादि अहंकार से ही पञ्चमहाभूतों की उत्पत्ति हुई इसीलिए उनकी संज्ञा भूत हुई । आकाश से वायु, वायु से अग्नि, अग्नि से जल, जल से पृथ्वी की उत्पत्ति हुई । तथा शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गन्ध ये क्रमशः महाभूतों के गुण हैं । इन्हें ही पञ्चतन्मात्रा भी कहा जाता है । पञ्चतन्मात्रा का दूसरा नाम अविशेष या सूक्ष्मभूत है ।

इसी को महर्षि चरक ने इस प्रकार कहा हैः-

महाभूतानि रवं वायुरग्निरापः क्षितिस्तथा,
                      शब्द स्पशर्श्च रूपं च रसो गन्धश्च तद्गुणाः । - (च०शा०१)

पञ्चमहाभूतों की रचना एवं गुणोत्पत्ति

१.० तन्मात्रा (१ शब्द तन्मात्रा)= आकाश (व्यापक)
२.१ शब्द तन्मात्रा+ २स्पर्श तन्मात्रा=वायु (शब्द प्रधान स्पर्श गुण युक्त)

अणुसमुदाय

भौतिक शारीरिक
(४९ रूप) (पञ्चरूप)
३.१ शब्द तन्मात्रा स्पर्श तन्मात्रा रूप तन्मात्रा=अग्नि (शब्द, स्पर्श, रूप, गुण प्रधान) अणु समुदाय ।
४.१ शब्द तन्मात्रा स्पर्श तन्मात्रा रूप तन्मात्रा २ रस तन्मात्रा=अप

(शब्द, स्पर्श, रूप, रस प्रधान) अणु समुदाय
५.१ शब्द तन्मात्र १स्पशर् तन्मात्रा रूप त०मा० १ रस त०मा० २गंध तन्मात्रा= पृथ्वी (शब्द, स्पशर्, रूप, रस, गन्ध प्रधान) अणु समुदाय ।

इस प्रकार सूक्ष्म महाभूत अर्थात् तन्मात्राओं से पहले तत्वों की एक मात्रा अपने तत्वों के दो भाग से आकाश आदि स्थूल महाभूतों की क्रमशः उत्पत्ति होती है । यह त्रिवृत्तिकरण दार्शनिकों का 'अणु' है ।

यह समस्त विश्व पञ्चमहाभूतों की ही खेल है । इन पञ्चमहाभूतों का जो इन्द्रियग्राह्य विषय नहीं है, वही तन्मात्रा महाभूत है और जो इन्द्रियग्राह्य है वे ही भूत है । आत्मा, आकाश अव्यक्त तत्व है और शेष व्यक्त तत्त्व है ।

यह हमारी सृष्टि भूतों का समुदाय है । पृथ्वी में गति वायु से तथा अवयवों का मेल एवं संगठन जल से और उष्णता अग्नि से आई । पृथ्वी अंतिम तत्त्व है, अर्थात् उससे किसी नये तत्त्व की उत्पत्ति नहीं होती है ।

       तेषामेकगुणं  पूर्वो   गुणवृद्धि  परे   परे,
                                 पूर्वः पूवर्गुणश्चैव क्रमशो गुणिषु स्मृतः।  - (च०शा० १/२८)

इनमें प्रथम भूत आकाश गुण वाला आर्थात् शब्द । आकाश का केवल एक ही गुण होता है- शब्द, और पिछले प्रत्येक भूत में अपने पूवर् भूत के गुणों के प्रवेश से गुण की वृद्धि रहती है ।

अर्थात्- सृष्टि के आदि में आकाश स्वयं सिद्ध रहता है । जिस प्रकार आकाश को नित्य माना जाता है उसी प्रकार शब्द भी नित्य है ।

उसके बाद 'आकाशद्वायुः' आकाश से वायु की उत्पत्ति होती है, तो उसमें अपना गुण स्पर्श एवं आकाश का शब्द रहता ही है जिससे वायु में शब्द एवं स्पर्श दो गुण हो जाते हैं । इसी प्रकार-

'वायोरग्नि' :- तो वायु से अग्नि की उत्पत्ति । इसमें-शब्द, स्पर्श, रूप, तीन गुण हुए ।

'अग्नेराप' :- अग्नि से जल की उत्पत्ति- शब्द, स्पर्श, रूप, रस ४ गुण हुए ।

'अद्भयः पृथ्वी' :- जल से पृथ्वी की उत्पत्ति जिसमें-शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गन्ध ये पाँच गुण होते हैं ।

इस प्रकार महाभूतों की क्रमशः उत्पत्ति और तदनुसार उनमें क्रमशः गुणवृद्धि होती है। इसके अतिरिक्त महाभूतों में कुछ अन्य गुण भी पाए जाते हैं जिनका ज्ञान स्पर्शेन्द्रीय के द्वारा होता है।
महाभूतों के गुण- गंधत्व, द्रवत्व, उष्णत्व, चलत्व गुण क्रमशः पृथ्वी, जल, तेज और वायु के होते हैं ।
आकाश का गुण अप्रतिघात (प्रतिघात=रुकावट) होता है ।

शरीर में सूक्ष्म महाभूतों के गुणों को चिह्न ही निदेर्श किया है ।

गुणाः शरीरे गुणिनां निदिर्ष्टश्चिह्नमेव च् ।    - (च०शा०)

अथार्त् खर होना, द्रव होना, चंचल होना, उष्ण होना, इनका ज्ञान त्वचा से ही होता है ।

महाभूतों का सत्व, रज और तम से भी घनिष्ठ संबंध है । शास्त्रों में उल्लेख मिलता है । यथा क्रमशः-

     १.   'सत्वबहुलमाकाशम्'- अथार्त् सत्व गुण की अधिकता वाला आकाश होता है ।

     २.   'रजोबहुलोवायुः'- रजो गुण की अधिकता वाला वायु होता है ।

     ३.   'सत्वोरजो बहुलोऽग्निः'- अथार्त् सत्व और रजोगुण की अधिकता वाला अग्नि महाभूत होता है ।

     ४.   'सत्वतमोबहुलाऽऽपः'- अथार्त् सत्व और तमोगुण की अधिकता वाला जल महाभूत होता है ।

     ५.   'तमोबहुला पृथिवीति'- अथार्त् तमोगुण की प्रधानता वाला पृथ्वी होती है ।

इस प्रकार आकाशादि पञ्चमहाभूतों में सत्वादिगुण विद्यमान रहते हैं ।

पञ्चमहाभूतों से द्रव्यों की उत्पत्ति के ज्ञान हेतु इसकी तीन अवस्थाएँ होती हैः-

भूत, महाभूत और दृश्यभूत

- भूत या तन्मात्रा की अवस्था में- आकाश, वायु, अग्नि, जल, पृथ्वी में उनके शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गन्ध- ये गुण अव्यक्तावस्था में रहते हैं, यह परमाणुक अथवा सूक्ष्मतम से भी सूक्ष्म अवस्था होती है । यह स्थिति प्रलय की है ।

वैशेषिक दर्शन के अनुसार प्रलय की स्थिति में जब परमात्मा को सृष्टि निर्माण की इच्छा हुई, तब आकाश महाभूत के दो परमाणुओं में परस्पर आकषर्ण के द्वारा संयोग होने लगा । द्वयणुक की रचना हुई तथा तीन द्वयणुक के मिलने से त्रसरेणुकी निर्मित हुई । द्वयणुक तक गुणों में सूक्ष्मता तथा भूत में अव्यक्तावस्था रहती है, तथा त्रसरेणु में यह (भूत) प्रत्यक्षयोग्यता तथा महत् परिमाण वाला हो जाता है । महत्त्व या स्थूलत्व आ जाने के कारण ही इनको महाभूत कहते हैं ।

चरक के अनुसार महाभूतों के गुण इस प्रकार है-

  खरद्रवचलोष्णत्वं          भूजलानिलतेजसाम् ,
                         आकाशस्याप्रतिघातो दृष्टं लिङ्गं यथाक्रमम् ।  - (च०शा०१/२९)

महाभूतों की उपयोगिता-

     १. गर्भविकास एवं पञ्चमहाभूत
     २. शरीरावयव एवं पञ्चमहाभूत
     ३. त्रिदोष एवं महाभूत
     ४. देह प्रकृति एवं पञ्चमहाभूत
     ५. षड्रस एवं पञ्चमहाभूत
     ६. भूताग्नि एवं पञ्चमहाभूत


- संसार के स्थूल से स्थूल तथा सूक्ष्म से सूक्ष्म द्रव्य की निष्पत्ति पञ्चमहाभूत से ही होती है; किन्तु पञ्चभौतिक होते हुए भी जिस महाभूत का प्राधान्य जिस द्रव्य में होगा उसकी अभिव्यक्ति उसी महाभूत के गुणों के द्वारा होती है तथा महाभूत की अधिकता के अनुसार ही आकाशीय वायव्य तैजस या आग्नेय आदि कहा जाता है ।


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