आयुर्वेद का व्यापक क्षेत्र

पित्त

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पित्त शब्द की निरुक्ति

'तप संतापे' धातु से कृदन्त विहित प्रत्यय द्वारा 'तपति इति पित्तं' जो शरीर में ताप, गर्मी उत्पन्न करे उसे पित्त कहते हैं ।। शरीर में पित्त शब्द से उस स्थान का बोध होता है, जो उष्णता प्रदान करता है।

''तस्मात् तेजोमयं पित्तं पित्तोष्मा यः स पक्तिमान'' - (भोज)

पित्त के द्वारा शरीर में जो कुछ भी कार्य संपन्न होता है, वह अग्नि के समान गुण, कर्म वाला होता है इसलिए पित्त शरीर में अग्निभाव का द्योतक है ।।

पित्त का स्वरूप

पित्त शरीरान्तर्गत एक ऐसा महत्त्वपूर्ण धातु है जो शरीर को धारण करता है और अपने प्राकृत कर्मों द्वारा शरीर का उपकार करता है ।। शरीर को धारण करने के कारण पित्त धातु भी कहलाता है ।। पित्त के विशिष्ट गुणों के आधार पर ही उसके स्वरूप का निर्धारण किया गया है ।।

तत्र औष्ण्यं तैक्ष्ण्यं लाघवं द्रवमनतिस्नेहो ।।
                                           वर्णश्चाशुक्लः गन्धश्च विस्रः रसः कटुकाम्लौ सरश्च पित्तस्यात्मरूपाणि ।।

अर्थात्- उष्णता, तीक्ष्णता, लघुता, द्रवति, अनतिस्निग्धता, शुक्लरहित वर्ण, विस्रगंध, कटु और अम्ल रस तथा सर के पित्त के आत्मरूप है ।। अतः इन गुणों से युक्त जो भी कोई द्रव्य है वह पित्त है ।। वाह्य लोक में जो अग्नि का महत्त्व है, वही शरीर में पित्त का है ।।

पित्त के गुण

पित्त, तीक्ष्ण, द्रव, दुर्गन्धित, नील, पीत वर्ण, उष्ण, कटु, सर विदग्ध और अम्ल रस वाला होता है ।।

   पित्तं तीक्ष्णं द्रवं पूति नीलं पीतं तथैव च ।।
उष्णं कटुरसं चैव विदग्धं चाम्लमेव च ॥

ये गुण पित्त में विशेष रूप से होते हैं ।। तीक्ष्णता होना इस बात की ओर संकेत करता है कि पित्त में मंदता के विपरीत तीव्र रूप से छेदन- भेदन करने की प्रक्रिया इसी गुण के कारण होती है ।। पित्त का कोई प्राकृत वर्ण न होने के कारण, उसमें नील और पीत वर्ण का संयोजन होने के ही कारण इन दोनों वर्णों को बताया है ।। उष्ण गुण के कारण पित्त उष्णता, ताप दहन- पाचन आदि क्रियाओं को करने में समर्थ होता है ।।

महर्षि चरक के अनुसार- स्नेह, तीक्ष्ण, उष्ण, द्रव, अम्ल, सर और कटुरस वाला पित्त होता है ।। यथा-

सस्नेहमुष्णं तीक्ष्णं च द्रवमग्लं सरं कटु ।। - (चरक)

उपयुक्त गुण पित्त के भौतिक गुण हैं, क्योंकि पित्त में इन गुणों का समावेश महाभूत के कारण होता है । परन्तु इन सभी में अग्नि गुणों की अधिकता है ।। इसलिए पित्त, अग्नि महाभूत का प्रतिनिधि द्रव्य है ।। पित्त के नैसर्गिक गुणों में शब्द, स्पर्श और रूप ये तीन गुण होते हैं ।। पित्त के प्राकृत गुणों में सत्व और रज प्रधान है, क्योंकि अग्नि महाभूत में इन दोनों गुणों का निर्देश किया गया है ।।

''सत्वरजोबहुलोऽग्नः ।''

पित्त के कर्म

पित्त के कर्म भी दो प्रकार के होते हैं ।। प्राकृत कर्म एवं वैकृत कर्म ।। जब पित्त प्राकृतावस्था में रहता है, तब उसके द्वारा संपन्न होने वाला प्रत्येक कर्म शरीर के लिए उपयोगी और शरीर को स्वस्थ रखने वाला होता है ।। किन्तु वही पित्त जब विकृत हो जाता है, तब उसके द्वारा किये जाने वाला कर्म शरीर को विकारग्रस्त बनाता है, जिससे शरीर में पित्त जनित रोग उत्पन्न होते हैं ।।

महर्षि चरक के अनुसार-

नेत्रों के द्वारा देखने की क्रिया, खाये हुए आहार का परिपाक करना, शरीर में उष्मा का निर्माण करना, यथावश्यक भूख उत्पन्न करना, प्यास लगाना, शरीर में मृदुता उत्पन्न करना, शरीर को प्रसन्न रखना और बुद्धि उत्पन्न करना, ये प्राकृत पित्त के कर्म हैं ।।

दर्शनं पक्तिरुष्मा च क्षुत्तृष्णा देहमादर्वम् ।।
                          प्रभा प्रसादों मेधा च पित्त कर्माविकारजम् ॥    - (च०स०अ०१८)

उष्ण गुण वाले पित्त से ही मनुष्यों के शरीर में सभी प्रकार का पाक होता है और वही पित्त कुपितावस्था में अनेक विकारों को उत्पन्न करता है ।। यथा-

पित्तदेवोष्मणः पक्तिनर्राणामुपजायते ।।
               पित्तं चैव प्रकुपितं विकारान् कुरुते बहून ।। - (चरक)

पित्त के भेद एवं कर्म

स्थान एवं कर्मानुसार पित्त पाँच प्रकार का होता है ।। यथा- पाचक, रंजक, आलोचक, साधक और भ्राजक पित्त ।।

१. पाचक पित्त-  शरीर के सूक्ष्मतम भाग में होने वाले पाक का आधार यही पाचक पित्त है ।। यह पित्त शरीर में मुख्य रूप से पक्वाशय और आमाशय के मध्य भाग में स्थित ग्रहण प्रदेश में होता है ।। इसी पाचक पित्त के कारण धात्वाग्नि और भौतिक अग्नियों के नाम रहते हैं ।। पाचक पित्त अन्न का पाचन (जरण) करके उसके अवयवों को सूक्ष्म रूप प्रदान करता है, जिससे धात्वग्नियाँ सरलतापूर्वक उनका परिपाक करके धातुओं में परिवर्तित कर देती हैं ।।

  तच्चादृष्टहेतुकेन विशेषेण पक्वाशयमहपस्थ
पित्तं चतुर्विधमन्नपानं पचति ।  - (सुश्रुत )

अर्थात् पक्वाशय और आमाशय के मध्य में स्थित चार प्रकार के अन्नप्राशन का पाचन करता है, और दोष रस मूत्र पुरीष का विवेचना करता है ।। वहीं पर स्थित रहता हुआ पित्त अपनी शक्ति से शरीर के शेष पित्त स्थानों का और शरीर का अग्नि कर्म के द्वारा अनुग्रह करता है ।। स्थान भेद से पाचक पित्त के निम्न भेद हैं ।।

मुखगत पाचक पित्त, आमाशयगत पाचक पित्त, यकृतगत पाचक पित्त ।। क्लोम या पित्ताशयगत पाचक पित्त, क्षुद्रान्तगत पाचक पित्त ।। इन समस्त पाचक पित्तों का कार्य, ग्रहण किये हुए आहार का परिपाक करना एवं उसे अवस्थान्तर प्रदान करना है ।।

२. रंजक पित्त-  यकृत प्लीहा में जो पित्त स्थित रहता है, उसकी रंजकाग्नि संज्ञा है ।। वह रस का रंजन कर उसे लाल वर्ण प्रदान करता है ।। इसके अनुसार रंजक पित्त का मुख्य स्थान यकृत और प्लीहा माना गया है ।। किन्तु कुछ आचार्यों ने रंजक पित्त का स्थान आमाशय और हृदय प्रदेश भी माना है ।।

''यत्तु यकृत प्लीहोः पित्तं तस्मिन रंजकोग्नि रिति संज्ञा ।। स सरसस्य राग कृदुक्तः ।''

आचार्य वाग्भट्ट के अनुसार आमाशय में आश्रत पित्त रस का रंजन करने से रंजक पित्त कहलाता है ।।

''आमाशयाश्रितं पित्तं रज्जकं रसरज्जनात्''

इसी प्रकार आचार्य शाङ्ग्रर्धर ने रस के रंजन का कार्य हृदयप्रदेश में बतलाया है-

रसस्तु हृदयंगति समान मारुतेरीतः ।।
                         रज्जितः पाचितस्त्र पित्तेनायति रक्तताम् ।। - (शा०स०)

महर्षि सुश्रुत के अनुसार रंजक पित्त की मुख्य स्थान यकृत एवं प्लीहा है ।। अतः रस के रंजन का कार्य इन्हीं स्थानों में होता है ।। रंजक पित्त रस का ही नहीं, वरन् मूत्र एवं पुरीष का भी रंजन करता है ।। जिसका स्पष्ट प्रतीति पाण्डु रोग में होती है ।। रंजक पित्त का एक मुख्य कार्य त्वचा को वर्ण प्रदान करना है ।। इस प्रकार रंजक पित्त के द्वारा रस, मूत्र, पुरीष, त्वचा, केश और नेत्रों को वर्ण प्रतीत होता है ।।

३. साधक पित्त-  शरीर के सबसे महत्त्वपूर्ण स्थान हृदय में साधक पित्त का स्थान है ।।

                यत्पित्तं हृदयस्थितं तस्मिन साधकोऽग्नि रितिसंज्ञा ।।
सोऽभिप्राथिर्त  मनोरथ  साधन  कृयुक्तः ।।

अर्थात् जो पित्त हृदय में स्थित रहता है, उसकी साधकाग्नि संज्ञा है ।। वह इच्छित मनोरथों का साधन करने वाला होता है ।। आचार्य डल्हण ने इसका स्पष्टीकरण करते हुए लिखा है- हृदय में जो पित्त या द्रव्य विशेष होता है, वह धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष इन चार पुरुषार्थ का साधन करने वाला होने से, उसे साधक पित्त या साधकाग्नि की संज्ञा दी गई है ।।

यह हृदय के आवश्यक कफ़ और तम को दूर कर मन को विमल और उत्कृष्ट करता है ।। जिससे हृदय में अन्य कलुषित भाव उत्पन्न नहीं होते और निद्रा, आलस्य आदि विभाव स्वतः नष्ट हो जाते हैं ।।

आचार्य वाग्भट्ट ने साधक पित्त को निम्न कार्यों का साधन करने वाला बताया है-

बुद्धि, मेधा और अभिधान (स्मृति) आदि के द्वारा अभिलषित विषयों का साधन करने से साधक पित्त कहलाता है तथा हृदय में स्थित रहता है ।।

बुद्धिमेधाभिधानाद्यैरभिप्रेताथर् साधनात् साधकं हृदगतं पित्तं ।  - (वाग्भट्ट)

४. आलोचक पित्त-  जो पित्त नेत्र में रहता है, उसका नाम आलोचक पित्त है ।। इसका कार्य नेत्र को ज्योति प्रदान करना है ।। महर्षि सुश्रुत ने इसे आलोचकाग्नि की संज्ञा दी है ।।

''यद्दृष्टयां पित्तं तस्मिन् आलोचकोऽग्निरिति संज्ञा- सरूपग्रहणेऽधिकृतः ''  - (सु०)

अर्थात् दृष्टि में जो पित्त रहता है, उसकी आलोचकाग्नि संज्ञा दी है ।। वह विषयों के रूप को ग्रहण करने में अधिकृत है ।।

५. भ्राजक पित्त-  यह पित्त शरीर के त्वचा प्रदेश में रहता है ।। इसका मुख्य कार्य त्वचा का भ्राजन (रंजन) करना है ।। भ्राजक पित्त के द्वारा शरीर के त्वचा का वर्ण प्रकाशित होता है ।। महर्षि सुश्रुत ने भ्राजक पित्त के संबंध में कहा है-

यत् त्वचि पित्तं तस्मिन भ्राजकोऽग्निरिति संज्ञा ।।
                                      सोऽभ्यंगपरिषेकावगाहनलेपादि द्रव्याणां व्यक्ता छायानां च प्रकाशकः  - (सुश्रुत)

अर्थात् त्वचा में जो पित्त रहता है, उसकी भ्राजकाग्नि संज्ञा है ।। वह अभ्यंग, परिषेक, अवगाहन और लेप आदि में प्रयुक्त किये हुए द्रव्यों का पाचन करता है तथा छायायों का प्रकाशक है ।। भ्राजक पित्त अर्थात् स्वेद का वहन करने वाले ।।


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