आयुर्वेद का व्यापक क्षेत्र

साम-निराम

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सामशब्द का अर्थ होता है 'आम सहित' और निराम शब्द का अर्थ होता है 'आम रहित' ।।

तीन दोष अथवा कोई एक दोष जब आम से युक्त होता है तो उसे सामदोष कहते हैं ।।

आमयुक्त दोष-  विकृतावस्था को प्राप्त हो जाते हैं और वे व्याधि को उत्पन्न करते हैं, वही दोष जब आम से रहित होता है तो निराम कहलाता है ।। निराम दोष समानतया प्राकृत या अविकृत दोषों को कहा जाता है ।। इस प्रकार दोषों की साम अवस्था विकारोत्पादक और निराम अवस्था विकार शामक होती है ।।
जठाराग्नि अथवा धात्वाग्नि की दुर्बलता के कारण अन्न तथा प्रथम धातु अर्थात्- रसधातु या आहार रस का समुचित रूप से पाक न होने के कारण अपक्व रस उत्पन्न होता है, यह अपक्व रस ही आम कहलाता है ।।

आम दो प्रकार के होते हैं

     १-   अपक्व अन्न रस
     २-   धात्वाग्नियों की दुर्बलता से अपक्व रस धातु ।।

प्रथम जठाराग्नि की दुर्बलता से अवस्था में आम की उत्पत्ति होती है ।। यह आमोत्पत्ति की अवस्था आमाशय गत होती है ।। दूसरी अवस्था धात्वाग्नि की दुर्बलता के कारण रस रक्तादि धातुओं के परिपाक में होती है ।। यह आमोत्पत्ति धातुगत होती है ।। इस आम को आमविष भी कहते हैं ।। यही आम दोषों के साथ संयुक्त होकर विकारों को उत्पन्न करता है ।। यह सभी दोषों का प्रकोपक होता है ।। अपक्व अन्नरस में सड़न होने से यह शुक्तरूप अर्थात सिरका की तरह होकर विषतुल्य हो जाती है-

      'जठराग्नि दौर्बल्यात् विपक्वस्तु यो रसः ।'
स आम संज्ञको देहे सर्वदोष प्रकोपणः
                                     अपच्यमानं शुक्तप्वं यात्यन्नं विषरूपताम् ॥  -(च०चि०१५ ।४४)

अग्नि की मंदता के कारण आद्य अपचित धातु जो दूषित अपक्व होकर आमाशय में रहता है वह रस आम कहलाता है-

'उष्मणोऽल्पबलत्वेन धातु माद्यमपचितम्
                                                  दुष्टमानाशयगतम् दुष्टमानाशयगतं रसमामं प्रचक्षते ।' - (अ०छ्र०सू०१३ ।२५)

सामलक्षणः-   अपक्व अन्नरस किं वा अपक्व प्रथम रस धातु से मिले हुए दोष- यथा वात, पित्त, कफ़ और दूष्य यथा रक्तादि धातु- साम कहे जाते हैं और इनसे उत्पन्न रोगों को 'सामरोग' कहा जाता है ।। जैसे

   सामज्वर, सामातिसार, आमेन तेन सम्प्रक्ता दोषाः दुष्यश्च दूषिता ।।
सामादुत्युपदिश्यन्ते येष रोगास्तदृदभषाः ।।- (अ०छ०सू०१३ ।। २७)

सामव्याधि- आलस्य, तंद्रा, अरुचि, मुखवैस्य, बेचैनी, शरीर में भारीपन, थकावट और अग्निमांध आदि साम रोग के लक्षण है ।

निरामव्याधि- शरीर में हल्कापन, इन्द्रियों की प्रसन्नता, आहार में रुचि और वायु का अनुलोमन होने पर रोग को निराम जानना चाहिये ।

अन्नरस जब तक आमाशय में रहता है तब तक उसका शरीर में ग्रहण होना सम्भव नहीं होता । वह विशेषकर उदर प्रदेश में ही विभिन्न विकृतियाँ अजीर्ण आदि उत्पन्न करता है । परन्तु इसके सड़ने से उत्पन्न विषद्रव्यों की आंत्रों द्वारा ग्रहण होता है । ग्रहीत होकर ये विष द्रव्य शरीर में पहुंचते हैं और अनेक विकारों को पैदा करते हैं ।

धात्वाग्नियों के दौबर्ल्य वश स्वयं धातुओं में भी रसधातु आमावस्था में रहता है जिससे उत्तरोत्तर धातुओं की पुष्टि नहीं होती जिसके कारण अपोषण जनित विकारों का जन्म होता है ।

सामदोष लक्षण-   स्वेद मूत्रादि स्रोतों का अवरोध, बल की हानि, शरीर में भारीपन, वायु का ठीक से न होना, आलस्य, अजीर्ण, थूक या दूषित कफ अधिक निकलना, मल का अवरोध, अरुचि, क्लम अर्थात् इन्द्रियों की अपने विषयों में अप्रवृति और श्रम मालूम होना, ये साम दोषों के लक्षण है-

'स्रोतोवरोध बलभ्रशं गौरवानिल मूढ़ता
            आलस्यपक्तिनिष्टीव मलसङ्गा रुचि क्लमाः
                 लिङ्ग मलानां समानाम् ।'- (अ०हृ०सू० १३ । २३)

निरामदोष लक्षण-   स्रोतों का प्राकृत रूप से कार्य करना, बल का ह्रास न होना, शरीर में हल्कापन, स्फूर्ति, समाग्नि, विषबन्ध न होना, आहार में रूचि और थकावट की प्रतीति न होना, ये निरामदोष के लक्षण होते है -

'निरामाणं विपयर्यः'   - (अ०ह०)


सामवात के लक्षण-   विबन्ध-अग्नि मांद्य, तन्द्रा, आंतों में गुड़गुड़ाहट, अंगवेदना, अंगशोथ, कटि पाश्वार्दि में पीड़ा, उरुस्तम्भ, स्तैमित्य, आरोचक, आलस्यादि सामवायु के लक्षण होते हैं । वायु की वृद्धि होने पर समस्त शरीर में संचरण करता है तथा परिस्थिति अनुसार एकांग या सर्वांग में विकार उत्पन्न करता है ।

निराम वायु लक्षण-   निरामवायु विशद रुक्ष, विबन्ध रहित और अल्पवेदना वाला होता है तथा विपरीत गुणोपचार से शांत होता है ।

निरामो विशदोरुक्षो निविर्न्धोऽल्पवेदनः
                                   विपरीत गुणैःशान्ति स्निग्धैयार्ति विशेषतः । - (अ०छ०सू० १३ ।)

सामपित्त के लक्षण-   सामपित्त दुर्गन्ध युक्त हरित या इषत कृष्ण अम्ल स्थिर अर्थात् जल में न फैलने वाला अम्लोद्गार, कण्ठ और हृदय में दाह उत्पन्न करने वाला होता है ।

''दुगर्न्धं हरितंश्यावं पित्तमम्लं घनं गुरू
                         अम्लीकाकण्ठहृद्दाहकरं सामं विनिदिर्शेत् ।"  - (अ०छ०)

निरामपित्त के लक्षण-  किन्चित् ताम्रवणर् या पीतवर्ण, अतिउष्ण, तीक्ष्ण, तिक्तरस, अस्थिर, गन्धहीन तथा रुचि अग्नि एवं बल का वधर्क होता है ।

सामकफ के लक्षण-   अस्वच्छ ततुंओं से युक्त सान्द्र कण्ठ को लिप्त करने वाला दुगर्न्धयुक्त भूख और डकार को रोकने वाला होता है ।

निराम कफ लक्षण-   फेनवाला, पिण्डरूप अर्थात् जिसमें तंतु नहीं होते हल्का गन्धहीन एवं मुख को शुद्ध करने वाला होता है ।

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