आयुर्वेद का व्यापक क्षेत्र

वात

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वायु या वात शब्द का निर्माण ''वा गतिगन्धनयोः ।'' धातु में 'वत' प्रत्यय लगाकर हुआ है ।। जिसका ज्ञान मुख्य रूप से त्वचा द्वारा होता है ।। वायु एक अमूर्त द्रव्य है, जिसका संगठन पंचभौतिक है ।। अमूर्त होने के कारण उसका कोई रूप या आकृति हमको दिखाई नहीं देती है ।। किन्तु वायु का ज्ञान उसके गुण कर्मों के द्वारा किया जाता है ।।

गुण एवं कर्म

      वायुस्तंत्रयन्त्रधरः................................
प्रवर्तकश्चेष्टानामुच्चावचानां नियतां
                              प्रणेता च मनसः सर्वेर्नदिरयाणामुद्योजक.... (च०सू०१२/८)

वायु शरीर रूपी यंत्र का संचालन करने वाला है ।। वही प्राणि मात्र की स्थिति उत्पत्ति का हेतु है और वायु ही संयोग विभाग और प्राक्तना कर्म के द्वारा गर्भ को विभिन्न आकृतियाँ प्रदान करती हैं ।। शरीर में प्रत्येक धातु स्थूल और सूक्ष्म रचना का कारण वायु ही है ।। प्रत्येक अवयव का अन्य अवयवों के साथ रचनात्मक तथा कर्म विषयक संधान वायु की ही प्रेरणा से होती है ।। शरीर की सभी चेष्टाएँ वायु द्वारा ही होती है । इसी को चरक ने कहा है कि-

उत्साहोच्छवासनिः श्वासचेष्टा धातुगतिः समा
                      समो मोक्षो गतिमतां वायोः कर्मविकारजम् ।।    (च०सू०१८/४९)

अर्थात् वायु से ही उच्छ्वास-निःश्वास आदि जीवनोपयोगी- अनैच्छिक स्वतंत्र चेष्टाएँ होती हैं ।। वायु ही मन को उसके विषयों में नियोजित करता है ।। वायु ही वाणी का प्रवर्तक है ।। स्पर्श और शब्द का ज्ञान वायु के द्वारा ही होता है ।। सभी प्राणियों में चेष्टा ज्ञान का मूल वायु ही होता है ।।

सर्वा ही चेष्टा वातेन स प्राणः प्राणिनांस्मृतः ।।
                    तेनैव रोगा जायन्ते तेन चैवोपरुध्यते ॥        -   ( सू०१७/११८)

अर्थात् शरीर में समस्त प्रकार की क्रियाएँ वायु के द्वारा ही होती है ।। यह वायु प्राणियों का प्राण माना जाता है ।। उसी वायु के द्वारा विभिन्न प्रकार के रोग उत्पन्न होते हैं किन्तु रोगों के शमन भी वायु के द्वारा ही होता है । वायु ही दोष और मलों को स्व स्थान पर रखता है और आवश्यकता होने पर योग्य स्थान पर पहुँचाता है ।। वायु के बिना पित्त और कफ़ पंगु है ।।

पित्तं पंगु कफः प्ङ्गः प्ङ्गवो मलधातवः ।।
                               वायुना यत्र नीयन्ते तत्र गच्छन्ति मेधवत् ।         - (शा०पू०५/४३)

सर्व अवयव और चेष्टाओं का निमित्त भूत होने से वायु सर्वात्म (विश्वरूप) है ।। वायु ही बल है ।। वायु ही आयु है ।। वायु ही प्राणियों का प्राण है ।। वायु ही हर्ष और उल्लास का हेतु है ।।

वायुवायुबलं वायुर्वायुधाता शरीरिणाम् ।।
                                     वायुर्विश्व्वमिदं सर्व प्रभुर्वायुश्च कीर्तितः ।  
          - (च०चि०२८/३४)
    
वायु के मुख्य गुण

वायु के मुख्य सात गुण हैं ।। अर्थात्- ''रुक्षः शीतो लघुः सूक्ष्म चलोऽथ विशद खरः'' ।। रुक्ष, शीत, लघु, सूक्ष्म, विशद और खर, इनका सम्बन्ध विशेषतः पाँचों महाभूत से होने के कारण इनको भौतिक गुण कहा गया है ।। इसलिए इन द्रव्यों में स्थित गुण वायु के भौतिक गुणों को प्रभावित करते हैं ।। शरीर में वात दोष के क्षय या वृद्धि का जो स्वरूप होता है, वह इन गुणों पर ही आधारित होता है ।। महाभूत के कारण इन गुणों की क्षय या वृद्धि होती है ।। इसलिए ही इन्हें भौतिक गुण कहा गया है ।। वायु के उपर्युक्त सात गुणों के अतिरिक्त अन्य चार गुणों को और स्वीकार किया गया है ।। ये गुण- परुश, दारुण, अनावस्थित और अमूर्तत्व है ।। इनका सामंजस्य इस प्रकार हैः-

     परुश- खर
     दारुण- खर+रुक्ष
     अनवस्थित- चल
     अमूर्तत्व- यह कोई गुण नहीं, क्योंकि इसका कोई कर्म नहीं ।।


           तत्रशैक्ष्यं शैत्यंलाधवं वैशद्यं गतिः ।।
अमूत्तर्त्वं वायोरात्मरुपाणि॥

अर्थात् त्रुक्षता, शीतता, लघुता, विशद, गति और अमूर्त्तता, ये सब वायु के आत्म रूप हैं ।। वायु का ग्रहण सामान्यतया त्वक् इन्द्रिय के द्वारा किया जाता है । किन्तु शरीर में विद्यमान वात दोष जो कि शरीर को धारण करता है, उसका ज्ञान इन आत्म रूपों द्वारा ही हो सकता है ।।

वात के भेद एवं स्थान

शरीर में स्थित वायु सर्वत्र एक ही रूप में रहता है ।। अतः उसको विभाजित नहीं किया जा सकता, किन्तु भिन्न- भिन्न स्थानों में स्थित होकर के वह वायु भिन्न- भिन्न प्रकार के कर्मों को करता है ।। इसलिए उसके स्थान और कर्मों के आधार पर वायु के पाँच प्रकार बताये गये हैं ।।

प्राणोदानौ समानश्च व्यानश्चापान एव च ।।
                            स्थानस्था मारुताः पञ्च यापयन्ति शरीरिणाम् ॥- (सु०नि०अ०१)

अर्थात् प्राण, उदान, समान, व्यान और अपान यह पाँच प्रकार का वायु विभिन्न स्थानों में स्थित रहता हुआ मनुष्यों के जीवन का यापन करता है ।। ये वायु के पाँच भेद हैं तथा कर्मानुसार इनका स्थान भिन्न- भिन्न है; परन्तु स्वतंत्र रूप जीवन स्वरूप जो वायु है, उसका स्थान भी नियत है, जहाँ पर वायु स्थित रहता है और उन स्थानों में स्थित वायु अपने प्राकृत कर्मों द्वारा शरीर का अनुग्रह करता है ।।

सामान्यतः निम्नलिखित स्थान वायु के हैं-

        पित्ताशय कटिसक्थि श्रोतास्थिस्पर्शनेन्दि्रयम् ।।
स्थानं वातस्य तत्रापि पक्वाधानं विशेषतः ॥

अर्थात् पित्ताशय, कटि, सक्थि, श्रोत्र, अस्थि स्पर्शेन्द्रिय- ये वायु के स्थान हैं ।। इनमें भी पित्ताशय वायु का विशेष स्थान है ।। चूँकि पित्ताशय में वायु ग्रहण किये आहार से उत्पन्न होता है ।। इसलिए पित्ताशय को वायु का विशेष स्थान बताया गया है ।। इसी प्रकार पाँच प्रकार की वायु के स्थान हैः- परन्तु वायु का विशेष स्थान हृदय और नाभि प्रदेश मुख्य है ।।

१- प्राण वायु-  शरीर के लिए अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है, क्योंकि इसके द्वारा संपन्न होने वाली क्रियाएँ शरीर के जीवनयापन से सम्बन्ध रखती हैं ।। क्योंकि शरीर में चेतनता इसी के द्वारा रहती है ।।

वायुर्यो वक्त्रसंचारी सप्राणो नामदेहधृक ।।
                         सोडन्नं प्रवेशयत्यतः प्राणीश्चात्यवलम्बते ॥- (सु०नि०अ०१)

अर्थात् जो वायु मुख प्रदेश में संचरण करता है, वह प्राण वायु कहलाता है और वह शरीर को धारण करता है ।। इसके अतिरिक्त यह वायु मुख द्वारा ग्रहण किये हुए आहार को अंदर प्रविष्ट करता है ।।

स्थानं प्राणस्य मूधोर्रः कण्ठजिह्वास्यनासिकाः ।।
                     ष्ठीवन    क्षवथुद्गार   श्वासाहारादि  कर्म   च॥- (च०चि०अ०२८)

अर्थात् प्राण, वायु के मूर्धा, वक्ष प्रदेश, कण्ठ, जिह्वा, मुख, नासिका स्थान है । छींकना, थूकना, उद्गार, श्वास, आहारादि को ग्रहण करने का कार्य प्राण वायु के द्वारा किया जाता है ।। अष्टांग हृदयकार प्राण वायु के स्थान- मूर्धा, उर प्रदेश, कण्ठ प्रदेश बतलाते हैं और यह बुद्धि, हृदय, इंद्रिय और चित्त को धारण करता है ।।

प्राणोऽत्र मूर्धजः उरः कण्ठचरो बुद्धिहृदयेन्र्दिय चित्तधृक ।।- (अ०हृ०सू०अ०१२)

प्राण वायु मुख्य रूप से वक्ष प्रदेश, कण्ठ प्रदेश और कण्ठ से ऊपर शिर प्रदेश में स्थित रहता है ।। यह मुख द्वारा ग्रहण किये हुए अन्न को अंतःप्रवेश कराने में सहायक होता है ।। फुफ्फुस की गति और क्रिया में सहायक होता है । विकृत होने पर श्वास कास, प्रतिश्याय, स्वर्ग आदि होते हैं ।।

२- उदान वायु-  महर्षि चरक के अनुसार उदान वायु का स्थान नाभि प्रदेश, वक्ष एवं कण्ठ है ।। इसके द्वारा किये गये कर्मों में वाणी की प्रवृत्ति, शरीर की शक्ति प्रदान करना मुख्य है तथा शरीर के बल और वर्ण को स्थित रखना है ।।

उदानस्य पुनः स्थानं नाम्यूरः कण्ठ एव च ।।
                         वाक्प्रवृत्ति प्रयत्नोजार् बल वर्णादि कर्म च ।। - (च०चि०अ०२८)

विकृत होने पर नेत्र, मुख, नासिका, कर्ण और शिरो रोग होते हैं ।।

३- समान वायु-  समान वायु पाचक अग्नि के समीप आमाशय और ग्रहण में रहती है ।। इसका कार्य अन्न को पचाना, अग्नि को बल प्रदान करना तथा रस पुरीष और मूत्र को पृथक करना है ।। यह स्वेदवह, अम्बुवह स्रोतों का नियामक है ।।

स्वेद दोषाम्बुवाहीति स्रोतांसि समधिष्ठितः ।।
                         अन्तरग्नेश्च पाश्वर्स्थः समानोऽग्नि बलप्रदः॥  - (च०चि०अ०२८)

चरक के अनुसार स्थान जठराग्नि के समीप है ।। मुख्य कार्य अग्नि को बल प्रदान करना, परिपक्व आहार को सार एवं कीट भाग में विभाजित करना है ।। इसमें विकृति आने पर गुल्म मांद्य अग्नि अतिसार रोगों का प्रादुर्भाव होता है ।।

४- व्यान वायु-  व्यान वायु को सर्वशरीर व्यापी बताया गया है और इसके द्वारा मुख्य रूप से शरीर में रस के संवहन का कार्य किया जाता है ।। स्वेद और रुधिर का स्राव करता है ।।

सर्वदेहचरो व्यानो रससंवहनोधतः ।।
                                     स्वेदा सृक्स्रावणश्चापि पञ्चधर चेष्टयत्यपि ॥ - (सु०नि०अ०१)

महर्षि चरक के अनुसार शरीर के प्रत्येक अवयव में होने वाली क्रिया व्यान वायु के आधीन है ।। चाहे वह क्रिया ऐच्छिक हो या अनैच्छिक व्यान वायु के द्वारा उसे गति प्राप्त होती है ।। इस प्रकार व्यान वायु के द्वारा संपूर्ण चेष्टाएँ होती है और शरीर में रस का संवहन होता है ।। इसके कुपित होने पर ज्वर अतिसार रक्तपित्त यक्ष्मा प्रभृति सर्वाङ्ग रोग होते हैं ।।

५- अपान वायु-  अपान वायु मुख्य रूप से शरीर के अधोभाग में रहती है और अधोमार्ग से बाहर निकलने वाले द्रव्यों के निष्कासन का कार्य करता है ।।

  वृष्णौ बस्तिमेद्रं च नाम्यूरुवंक्षणोर् गुदम् ।।
अपानस्थानमन्त्रस्थः शुक्र मूत्र शकृन्ति च
 सृजत्यात्तर्व गर्मों च...... - (च०चि०अ०२८)

अर्थात् दोनों अण्डकोष, बस्ति प्रदेश, शिश्न, नाभि, उरु, वंक्षण प्रदेश, गुदप्रदेश और बृहदन्त्र है ।। इन स्थानों में स्थित रहता हुआ अपान वायु, शुक्र, मूत्र, पुरीष, आर्त्तव और गर्भ को बाहर निकालता है ।। कुपित होने पर यह अश्मरी, मूत्रकृच्छ, शुक्रदोष, अर्श, भगन्दर, गुदपाक आदि रोग उत्पन्न करता है ।।

क्षय एवं वृद्धि रूप वायु के लक्षण

क्षीण वात के लक्षण- मुख से लार टपकना, अरुचि, उबकाई, जी मचलाना, संज्ञा मोह अर्थात् बुद्धि की विचार शक्ति में अक्षमता, अल्पवाक्यता, जाठर अग्नि की विषमता आदि विकारों को उत्पन्न करके क्षीण हुआ वायु पीड़ादायक होता है ।।

बढ़े हुए वायु के लक्षण

शरीर में बढ़ा हुआ वायु कृशता पैदा करता है ।। वण्य में कालापन, शरीर का काँपना, अंगों का फड़कना, उष्णता की अभिलाषा, संज्ञा और निद्रा की नाश, बल एवं इंद्रियों की हानि, मज्जशोष, मलमूत्र, स्वेद की अवरोध, पेट फूलना, पेट की गड़गड़ाहट, मूर्च्छा, दैन्य, भय, शोक, प्रलाप आदि करके शरीर को पीड़ा देता है ।।


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