जड़ीबूटियों द्वारा चिकित्सा

नीम (एजाडिरेक्टा इण्डिक)

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'निम्ब सिञ्चति स्वास्थ्यं इति निम्बम्' अर्थात्-जो स्वास्थ्य को बढ़ाए, वह नीम (निम्ब) कहलाता है । इसे पिचुमर्द (कुष्ठ नष्ट करने वाला) कड़वा निम्ब तथा अरिष्ट (नरिष्टम् शुभमस्मात् अर्थात् जिससे शरीर को कोई हानि न हो) मार्गोसा ट्री नाम से भी जाना जाता है । यह भारत में सर्वत्र उत्पन्न होता पाया जाता है । विशेषकर दक्षिण भारत के शुष्क जंगली व मध्य तथा उत्तर भारत में बड़ी संख्या में पाया जाता है । इस वृक्ष को नीलकण्ठ भी कहा जाता है, क्योंकि वातावरण में संव्याप्त प्रदूषण का गरलापन कर यह वायु को शुद्ध करने में सर्वाधिक योगदान देता पाया गया है । इसी कारण घरों व गाँवों के आस-पास तथा सड़कों के किनारे यह बहुधा पाया जाता है ।

वानस्पतिक परिचय-
वृक्ष 40 से 50 फीट ऊँचा होता है । सीधा खड़ा तना होता है, जिसमें चारों ओर शाखाएँ प्रशाखाएँ निकली रहती हैं । इसके लगभग सभी अंग तिक्त-कटु होते हैं । पत्तियाँ शाखाओं पर समूहबद्ध क्रम में लगी होती है, शाखाग्र कोमल होते हैं, कोपल कहलाते हैं । पत्ते 1 इंच लंबे लगभग एक इंच चौड़े भालाकार 5 से 9 के जोड़े में होते हैं । त्वचा स्थूल खुरदरी लंबे-लंबे खण्डों से युक्त होती हैं । बाहर गहरे भूरे रंग की व अन्दर कुछ लाली लिए होती है । इससे एक प्रकार का रस व गोंद निकलता है ।

फूल छोटे मंजरियों में अवस्थित सफेद रंग के होते हैं । फल लंबे गोल लगभग 1/2 से तीन चौथाई इंच, लंबे, कच्ची अवस्था में हरे तथा पकने पर पीले होते हैं । इनका आकार खिरनी के फल जैसा होता है । इन निमौलियों में से प्रत्येक में एक बीज होता है, जिससे तेल निकलता है । पतझड़ में वृक्ष की सारी पत्तियाँ गिर जाती हैं व वसंत में नए तांबे जैसे पत्ते आते हैं । वसंत में आए पुष्प ग्रीष्म के अंत एवं वर्षा के प्रारंभ तक पकते हैं ।

नीम का गोंद लंबे-लंबे टुकड़ों के रूप में मिलता है । यह कड़वा नहीं होता व पानी में अच्छी तरह घुल जाता है । प्रयोग हेतु छाल (त्वचा) पुष्प, कोपल एवं बीज किसी को भी लिया जा सकता है ।

पहचान एवं मिलावट-
नीम की छाल खुरदरी या नालीदार, रेशेदार टुकड़ों के रूप में होती है तथा लगभग एक सेण्टीमीटर मोटी होती है । यह स्वाद में अत्यन्त तीखी व कसैलापन लिए होती है । इसमें लहसुन जैसी तेज गंध भी आतती है । नीम का तेल हल्के पीले गाढ़े द्र्व्य के रूप में होता है, गंध उग्र होतती है तथा स्वाद कड़वा इसकी सैपोनीफिकेशन वैल्यू 16 से 200 के बीच होती है ।

संग्रह संरक्षण एवं कालावधि-
नीम का तेल, ताड़ी तथा त्वक्चूर्ण का संग्रह किया जाता है । कोपल व ताजी छाल सीधे प्रयुक्त की जा सकती है । नीम का तेल पकी निमौली (गिरी) को कोल्हू में पेरकर प्राप्त किया जाता है । इसे अच्छी तरह डाट बंद पात्र से सूखे स्थानों पर रखा जाना चाहिए ।

जब वृक्ष पुराना हो जाता है तो उसमें स्वतः 4 से 7 सप्ताह तक एक प्रकार का रस निकलता रहता है । ताजे रस का स्वाद मधुर मिश्रित तीखा होता है । इसे शहद में मिलाकर बोतल में बंद कर रखते हैं । एक वर्ष तक इसे प्रयुक्त करते रहा जा सकता है । निम्बत्व चूर्ण भी इसी प्रकार एक वर्ष तक प्रयुक्त हो सकता है, परन्तु यह मधु एवं अन्य स्नेह मधुर द्रव्यों का अनुपान मांगती है ।

गुण-कर्म संबंधी विभिन्न मत-
नीम की छाल, कोपल, निमौली एवं गोंद सहस्रों वर्षों से आयुर्विज्ञान में प्रयुक्त होते रहे हैं ।
चरक एवं सुश्रुत दोनों ही महर्षियों ने इसे कुष्ठ तथा चर्मरोग एवं रक्त शोधन हेतु उत्तमतम औषधि माना है । धन्वन्तरि निघण्टु कार लिखता है-निम्वस्तिक्तरसः शीतोलघुः शष्मास्रपित्तनुत् । कण्डूकुष्ठप्रणान् हन्ति लेपाहारादि शीलतः॥ अपक्वं पाचयेच्छोथं व्रणं पक्वं विशोधयेत्॥ अर्थात्-नीम तिक्तरस, लघु गुण, शीत वीय्र व कटु विपाक की होने से कफ व पित्त को शांत करता है । कण्डूरोग, कोढ़, फोड़े-फुन्सी, घाव आदि में लेप द्वारा लाभ करता है । रक्तशोधक होने के कारण यह व्रणों तथा शोथ रोगों में लाभ पहुँचाता है ।
इसी प्रकार वाग् भट्ट एवं चक्रदत्त दोनों ही वैद्यराज लिखते हैं कि यह विषैले फोड़ों, पुरानी त्वचा की व्याधि, कोढ़ तथा किसी भी प्रकार के रोगाणु आक्रमण में तुरंत लाभ करती है ।

भाव प्रकाश निघण्टु के अनुसार नीम व्रण नाशक और कुष्ठ हर है तथा कृमिघ्न है । ऐसे ही मत डॉ. खोरी, नादकर्णी व कर्नल चोपड़ा ने भी व्यक्त किए हैं । वे इसे विषम ज्वर में एक विशिष्ट औषधि मानते हैं । नीम सेवन का प्रावधान चिरपुरातन काल से संधिकाल के लिए होता चला आया है । वंसत से ग्रीष्म की तपती धूप के आने की मध्यावधि में तथा वर्षा के तुरंत बाद रोगाणुओं के आक्रमण काल के समय रक्त शोधन तथा जीवनी शक्ति बढ़ाने हेतु इसका प्रयोग बड़ा लाभकारी बताया गया है ।
होम्योपैथी में सर्वप्रथम डॉ. पी. सी. मजूमदार ने इसका प्रयोग आरंभ किया । श्री घोष के अनुसार यह पुराने जीर्ण व्रणों की अच्छी औषधि है । त्वचारोगों में इसके प्रयोग की विशेष चर्चा की गई है । होम्योपैथी मतानुसार भी यह कुष्ठ की एक श्रेष्ठ दवा है तथा कुनैन के दुष्प्रभावों को दूर करती है ।

यूनानी मतानुसार नीम आजाद दरख्ते नाम से प्रसिद्ध है । अर्क गुलनीम इसका एक प्रसिद्ध योग है । उसके अनुसार यह पहले दर्जे में गरम एवं खुश्क है । इकीम दलजीत सिंह के अनुसार यह दोष पाचन, रक्त प्रसादन, कीटाणु नाशक कार्य में प्रयुक्त श्रेष्ठ औषधि हे । नीम के पुराने वृक्षों से निकलने वाली ताड़ी जिसे यूनानी वैद्य मद कहते हैं, उच्च श्रेणी का रक्त प्रसादक है । यह कोढ़, सिफिलिस एवं किसी भी रोगाणु जन्य खुजली को दूर करती है ।

रासायनिक संगठन-
नीम के कड़वे पदार्थ का विश्लेषण सर्वप्रथम श्री कार्निस ने 1956 में किया । इसे उन्होंने मार्गोसीन नाम दिया । आधुनिक अध्ययनों से यह भी पता चला है कि नीम में मार्गोसीन के अतिरिक्त अन्य और भी कई कड़वे पदार्थ होते हैं । जिनमें प्रमुख हैं । 'निम्बडिन' जो इसकी छाल में 0.4 प्रतिशत तक की मात्रा में विद्यमान होता है । निम्बडन में गंधक होता है । अति कड़वा होते हुए भी यह हानिकारक नहीं होता । अन्य कड़वे पदार्थ है-निम्बन (0.04 प्रतिशत) डेसएसिटाइल निम्बिन निम्बिनिन निम्बोस्टीरॉल । नीम की छाल के अन्य संघटक हैं-टैनिन (6 प्रतिशत), इसेन्शियल ऑइल, रेजेन्दस, कईग्लाइकोसाइड्स, वसा अम्ल, मुक्त अमीनो अम्ल, गोंद स्टार्च तथा शर्करा ।
'जनरल ऑफ इण्डियन केमीकल सोसायटी' में प्रकाशित एक लेखानुसार (45, 466, 1969) नीम की पत्तियों में क्वर्सेटिन और एक बीटा-साइटोस्टीरॉल (निम्बोस्टीरॉल) होता है । क्वसेटिन एक जीवाणु नाशक पदार्थ है, जिसकी मात्रा ताजी कोपलों में सर्वाधिक होती है ।

आधुनिक मत एवं प्रयोग-निष्कर्ष-
भाषा के अनुसार नीम एक प्रचण्ड जीवाणु नाशी औषधि है । इसके रोम-रोम में रक्तशोधक गुण भरे पड़े हैं । अतिस्वल्प मात्रा में (12.5 माइक्रोग्राम प्रति मिलीलीटर) नीम का तेल प्रायोगिक परीक्षणों में क्षय रोग को जन्म देने वाले जीवाणु माइक्रो वैक्टीरियम टुवरकुलोसिस की तीनों प्रजातियों का वंश नाश करता पाया गया है । इसके अतिरिक्त टाइफाइड, पेराटाइफाइड, कॉलरा तथा न्यूमोनिया के लिए उत्तरदायी जीवाणु विषाणु समूहों की शरीर में वृद्धि पर भी इसका मारक प्रभाव होता है ।
श्री राव के अनुसार नीम की पत्तियों (ताजी कोपलों) का काढ़ा विषाणुरोधी क्षमताएँ रखता है । रक्त का समग्र शोधन कर यह प्रतिरोधी सामर्थ्य बढ़ाता हे । निम्बिडीन में भी फंजाईरोधी (कव नाशक) क्षमताएँ पाई गई हैं ।

निम्बिडीन को फोड़ों, हरपीस नामक एक वायरस संक्रमण स्केवीज (कण्डू रोग) और सीबोहरिक डर्मेटाइटिस में लाभ करता देखा गया है । इस विषय पर डॉ. मित्रा ने नीम नामक एक विस्तृत पुस्तक लिखी है (इण्डियन सेण्ट्रल ऑयल सीड्स कमेट, हैदराबाद-1963) । वे निम्बिडीन के कारण ही नीम को एक अमृत औषधि मानते हैं ।
श्री मूर्ति आदि के अनुसार(इण्डियन जनरल ऑफ फार्मोकालॉजी 10, 3, 1978) नीम की पत्तियों का निष्कर्ष रक्त शर्करा को कम करता है । यह एड्रीनेलिन के प्रभाव से उत्पन्न हाइपर ग्लाईसीमिया को भी रोक देता है । संभवतः रक्त शर्करा घटाकर ही नीम अपनी जीवाणु नाशी क्रिया संपादित करता है । यह एक सर्व विदित तथ्य है शर्करा प्रधान मीडिया में जीवाणु पलते हैं तथा शक्कर घटा देने पर जीवाणु प्राणहीन हो जाते हैं ।

ग्राह्य अंग-
पुष्प, छाल, विशेषकर भूमि के नीचे की ताजी तथा पुरानी छाल का चूर्ण, पत्र, बीज, निमौली तेल ।

मात्रा-
त्वक् चूर्ण- 2 से 4 ग्राम नित्य । पत्र स्वरस-10 से 20 मिली लीटर नित्य छाल का चूर्ण यदि त्वक् के अंदरुनी भाग का हो तो विशेष लाभकारी होता है । तेल- 5 से 10 बूंद ।

निर्धारणानुसार उपयोग-
वसंत के उपरांत विशेषकर चैत्र मास में नीम के कोपलों का सेवन श्रेष्ठ माना गया है । रक्त शोधन के लिए ऋतु संधिकाल ही श्रेष्ठ समय है । इसी बेला में शरीर विषमता का सामना करता है व प्रतिरोधी सार्मथ्य की परीक्षाभी इसी समय में होती है ।
कोढ़ के रोगी के लिए शास्रकारों ने सदैव नीम के वृक्ष के नीचे रहने का प्रावधान किया है । नीम की ही दातून से नित्य मुँह धोना, प्रातः नित्य 5 तोला नीम पत्र स्वरस अथवा 10-15 बूँद तेल पीना, सारे शरीर में नीम पत्र स्वरण का उबटन करना । ये सभी प्रयोग कोढ़ निवारण के सिद्ध प्रयोग हैं । शास्रकार लिखते हैं कि कुष्ठ रोगी को भोजनोपरांत दो बार पाँच-पाँच तोला नीम की ताड़ी पीना चाहिए तथा शैय्या पर नित्य नीम की ताजी पत्तियाँ बिछानी चाहिए ।

धन्वन्तरि वनौषधि अंक के विद्वान लेखक के अनुसार श्वेत कुष्ठ में रोगी को नीम पत्र पुष्प फल सम भाग में रख महीन पीसकर 2 ग्राम की मात्रा में जल में घोंट-छानकर सेवन आरंभ करके धीरे-धीरे 3 से 6 माशा तक बढ़ाते हुए 40 दिनों तक सेवन करना चाहिए ।
खुजली के रोगी को एक-एक नीम की गिरी नित्य खिलाते रहने व एक-एक प्रत्येक दो दिन के अंतर पर बढ़ाते रहने काभी अभिमत है । कण्डूरोग में नीम के दो तोला कोमल पत्र पानी के साथ पीस-पीस कर पिलाने पर 15 दिन में खुजली दूर हो जाती है । नीम पत्र चूर्ण घी के साथ नित्य दो ग्राम की मात्रा में सुबह-शाम सेवन करने से कभी विषम ज्वर नहीं सताते तथा किसी भी प्रकार की चोट आदि में घाव पकता नहीं ।

अन्य उपयोग-
मुँह से लिए जाने पर यह पाचन संस्थान में कृमिनाशक, यकृदोत्तेजक प्रभाव बढाता है । शोथ मिटता है तथा श्वांस रोग खाँसी में आराम देता है । मधुमेह, बहुमूत्र रोग में भी इसे प्रयुक्त करते हैं । इसी प्रकार के विषम जीर्ण ज्वरों में इसके प्रयोग का प्रावधान है ।

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