जड़ीबूटियों द्वारा चिकित्सा

पुनर्नवा (बोअरहविया डिफ्यूजा)

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'पुनः पुनर्नवा भवति' जो फिर से प्रतिवर्ष नवीन हो जाए अथवा 'शरीरं पुनर्नवं करोति' जो रसायन एवं रक्तवर्धक होने से शरीर को पुनः नया बना दे, उसे पुनर्नवा कहते हैं । इस विशेषणात्मक उक्ति की पृष्ठभूमि पूर्णतः वैज्ञानिक है । पुनर्नवा का पौधा जब सूख जाता है तो वर्षा ऋतु आने पर इन से शाखाएँ पुनः फूट पड़ती हैं और पौधा अपनी मृत जीर्ण-शीर्णावस्था से दुबारा नया जीवन प्राप्त कर लेता है । इस विलक्षणता के कारण ही इसे ऋषिगणों ने पुनर्नवा नाम दिया है । इसे शोथहीन व गदहपूरना भी कहते हैं ।

वानस्पतिक परिचय-
पुनर्नवा के नामों के संबंध में भारी मतभेद रहा है । कौन-सी पुनर्नवा औषधीय क्षमता रखती है व कौन-सी नहीं, इस पर भारी विवाद चलता रहा । भारत के भिन्न-भिन्न भागों में तीन अलग-अलग प्रकार के पौधे पुनर्नवा नाम से जाने जाते हैं । ये हैं-बोअरहेविया डिफ्यूजा, इरेक्टा तथा रीपेण्डा । आय.सी.एम.आर. के वैज्ञानिकों ने वानस्पतिकी के क्षेत्र में शोधकर 'मेडीसिनल प्लाण्ट्स ऑफ इण्डिया' नामक ग्रंथ में इस विषय पर लिखकर काफी कुछ भ्रम को मिटाया है । उनके अनुसार बोअरहेविया डिफ्यूजा जिसके पुष्प श्वेत होते हैं ही औषधीय । बाजार में उपलब्ध पुनर्नवा में बहुधा एक अन्य मिलती-जुलती वनस्पति ट्रांएन्थीला पाँरचूली क्रास्ट्रम की मिलावट की जाती है । रक्त पुनर्नवा एक सामान्य पायी जाने वाली घास है जो सर्वत्र सड़कों के किनारे उगी फैली हुई मिलती है । श्वेत पुनर्नवा रक्त वाली प्रजाति से बहुत कम सुलभ है इसलिए श्वेत औषधीय प्रजाति में रक्त पुनर्नवा की अक्सर मिलावट कर दी जाती है ।

श्वेत पुनर्नवा का पौधा बहुवर्षायु प्रसरणशील होता है । क्षुप 2 से 3 मीटर लंबे होते हैं । ये प्रतिवर्ष वर्षा में नए निकलते हैं व ग्रीष्म में सूख जाते हैं । इस क्षुप के काण्ड प्रायः गोलाई लिए कड़े, पतले व गोल होते हैं । पर्व संधि पर ये मोटे हो जाते हैं । शाखाएं अनेक लंबी, पतली तथा लालवर्ण की होती हैं । पत्ते छोटे व बड़े दोनों प्रकार के होते हैं । लंबाई 25 से 27 मिली मीटर होती है । निचला तल श्वेताभ होता है व छूने पर चिकना प्रतीत होता है ।

पुष्प पत्रकोण से निकलते हैं, छतरी के आकार के छोटे-छोटे सफेद 5 से 15 की संख्या में होते हैं । फल छोटे होते हैं तथा चिपचिपे बीजों से युक्त होते हैं । ये शीतकाल में फलते हैं । पुनर्नवा की जड़ प्रायः 1 फुट तक लंबी, ताजी स्थिति में उँगली के बराबर मोटी गूदेदार व उपमूलों सहित होती है । यह सहज ही बीच से टूट जाती है । गंध उग्र व स्वाद तीखा होती है । उल्टी लाने वाला तिक्त गाढ़ा दूध समान द्रव्य इसमें से तोड़ने पर निकलता है । उपरोक्त गुणों द्वारा सही पौधे की पहचान कर ही प्रयुक्त किया जाता है ।

संग्रह-
पंचांग शरद ऋतु के आस-पास एकत्र करके शुष्क कर अनाद्र शीतल स्थान पर रखते हैं नमी लगने पर खराब होने की संभावना अधिक रहती है ।

कालावधि-
इसे 1 वर्ष तक प्रयोग किया जा सकता है । शुष्क चूर्ण रूप में पौधे के सूखे होने की स्थिति में तथा ताजा हरा उपलब्ध होने की स्थिति में नए पत्ते आने पर प्रयुक्त होता है । यथा संभव पुनर्नवा ताजी जड़, पत्ते या पंचांग का ही प्रयोग करते हैं । ताजी न मिलने पर ही शुष्क चूर्ण प्रयुक्त करना चाहिए ।

गुण-कर्म संबंधी विभिन्न मत-
आचार्य सुश्रुत ने पुनर्नवा पात्र को शरीर व्यापी शोथ में अति लाभकारी बताया है व कहा है-उष्णानि स्वाद तिक्तानि वातप्रशमनानि च । तेषु पौनर्नवं शाकं विशेषच्छोथनाशनम्॥
धन्वन्तरि निघण्टुकार ने पुनर्नवा को हृदय रोग कास, उरक्षत और मूत्रल में भी उपयोगी बतलाया है । कयदेव ने इसे हृदयरोगनाशक बताया है । वनौषधि शतक के लेखक के अनुसार पुनर्नवा से मूत्र का प्रमाण दुगुना होता है, हृदय संकोचन बढ़ता है धमनियों में रक्त प्रवाह बढ़ जाता है तथा इन सब कारणों से शोथ दूर होती है । डॉ. भण्डारी के अनुसार हृदय पर पुनर्नवा की क्रिया अर्जुन की तरह तीव्र तो नहीं पर स्पष्ट होती है । हृदय की मांसपेशियों की कार्य क्षमता में वृद्धि करता है तथा इससे शरीर का संचित जल बाहर निकाल दिया जाता है । हृदय की शिथिलता में भी यह अत्यंत लाभकारी है ।

डॉ. चौपड़ा ने पहली बार इसके पंचांग का चूर्ण रासायनिक विश्लेषण कर यह बताया कि इसमें पाया जाने वाला पोटेशियम नाइट्रेट नामक लवण (मात्रा लगभग 0.52 प्रतिशत) इतना प्रचुर व प्रभावी है कि इससे इस औषधि की हृदय रोग में उपयोगिता प्रमाणित हो जाती है । पोटेशियम ही वह आवेशधारी खनिज है जो आयन्स के रूप में मांसपेशी कोशिका में अंदर से बाहर व वापस अन्दर प्रविष्ट होकर उसकी संकुचन क्षमता (कॉट्रेक्टिलिटी) बढ़ाता है । एक बात और ध्यान देने योग्य है कि जितने भी पाश्चात्य औषधि विज्ञान के दिए हुए रासायनिक मूत्रल (डाययूरेटिक) हैं, उनमें से बहुसंख्य पोटेशियम की मात्रा शरीर में घटाते हैं व इससे हृदय की मांसपेशियाँ प्रभावित होती हैं । पुनर्नवा मूत्रल होने के साथ पेटेशियम प्रदायक भी है । इसी कारण डॉ. चोपड़ा ने इसे सर्वश्रेष्ठ शोथहन औषधि माना है ।
डॉ. घोषाल ने इस वनस्पति पर परीक्षा कर यह निष्कर्ष निकाला कि यह औषधि हृदय व गुर्दों पर एक साथ प्रभाव डालती है ।

पुनर्नवा में विटामिन की बहुलता के कारण डॉ. घोषाल भारत जैसे देश के लिए इसे वरदान मानते हैं । अपने देश में एपीडिमिक ड्रौप्सी एक बड़ी स्वास्थ्य समस्या है । यह सरसों के तेल में आर्मीजोन मेक्सिकाना की मिलावट के कारण होती है । हृदय पर प्रभाव डालने वाला यह विषाक्त पदार्थ लगभग महामारी को जन्म देता है । डॉ. खगेन्द्र नाथ वसु भी इसके ताजे पत्तों में विटामिनों की अधिकता के कारण इसे विटामिन बी की कमी के कारण होने वाले हृदय रोगों (बेरी-बेरी) में लाभकारी मानते हैं । इस प्रकार यह औषधि पथ्य भी है तथा रोग निवारक भी ।
'वेल्थ ऑफ इण्डिया' में विद्वान वैज्ञानिकों ने पुनर्नवा की जड़ को मूत्रल माना है तथा कई जैव प्रयोगों द्वारा इसे सिद्ध करने का प्रयास भी किया है । डॉ. रस्तूर लिखते हैं कि इस औषधि का सबसे प्रभाव अंग जड़ है, जिसमें मूत्रल घटक होते हैं ।

रासायनिक संगठन-
इस औषधि का मुख्य औषधीय घटक एक प्रकार का एल्केलायड है, जिसे पुनर्नवा कहा गया है । इसकी मात्रा जड़ में लगभग 0.04 प्रतिशत होती है । अन्य एल्केलायड्स की मात्रा लगभग 6.5 प्रतिशत होती है । पुनर्नवा के जल में न घुल पाने वाले भाग में स्टेरॉन पाए गए हैं, जिनमें बीटा-साइटोस्टीराल और एल्फा-टू साईटोस्टीराल प्रमुख है । इसके निष्कर्ष में एक ओषजन युक्त पदार्थ ऐसेण्टाइन भी मिला है । इसके अतिरिक्त कुछ महत्त्वपूर्ण् कार्बनिक अम्ल तथा लवण भी पाए जाते हैं । अम्लों में स्टायरिक तथा पामिटिक अम्ल एवं लवणों में पोटेशियम नाइट्रेट, सोडियम सल्फेट एवं क्लोराइड प्रमुख हैं । इन्हीं के कारण सूक्ष्म स्तर पर कार्य करने की सामर्थ्य बढ़ती है ।

आधुनिक मत एवं वैज्ञानिक प्रयोग निष्कर्ष-
डॉ. सिंह तथा उडुप्पा ने पुनर्नवा के भैषज पक्ष पर विस्तृत विश्लेषण विवेचन किया है । 'जनरल ऑफ रिसर्च इन इण्डियन मेडीसिन' के अनुसार पूर्ण पुनर्नवा का पंचांग चूर्ण प्रायोगिक जीवों में मूत्र की मात्रा तुरंत बढ़ाता है । क्वाथ की अपेक्षा उन्होंने चूर्ण को अधिक लाभकारी पाया, क्योंकि इनमें विद्यमान मूत्रल घटक जल में घुलनशील नहीं है । उन्होंने पाया कि यह औषधि शोथ रोगों में उसी प्रकार लाभकारी है, जैसे कि सूजन उतारने में 'स्टीरायड' नामक पाश्चात्य औषधि । हृदय पर यह टॉनिक के समान काम करती है ।
होम्योपैथी में डॉ. बसु, घोषा व भादुरी ने 'इण्डियन होम्योपैथी रिव्यू' पत्रिका में इसके प्रयोग की चर्चा की है व हृदय स्पंदन शोथ तथा मूत्र कृच्छता में लाभकारी पाया है ।

ग्राह्य अंग-
पंचांग विशेषतः मूल । ताजी स्थिति में पूरे पौधे का स्वरस ।

मात्रा-
स्वरस 10 से 20 ग्राम (दिन में 2 या 3 बार में)
क्वाथ-2 से 3 औंस (दिन में दो बार)
बीज चूर्ण-1 से 3 ग्राम ।
पंचांग चूर्ण-5 से 10 ग्राम ।
मधु के साथ पुनर्नवा का प्रयोग अधिक उत्तम माना गया है ।

निर्धारणानुसार प्रयोग-
हृदय रोगों में पुनर्नवा के पत्रों का शाक प्रयुक्त किया जाने का विधान है । यह शोथ हरता है, तुरंत श्वांस व शूल में आराम पहुँचता है । मूत्रल के रूप में इस औषधि का क्वाथ 1 से 3 चम्मच की मात्रा में प्रयुक्त होता है । क्वाथ ताजे पौधे या सुखाए पंचांग से बनाया जा सकता है । वैसे क्वाथ की तुलना में चूर्ण दिए जाने का शास्रोक्त विधान है । उसमें भी मधु का अनुपान अति लाभकारी है व प्रभावी माना जाता है । वह हृदयोत्तेजक शोथहर व कामहर की अपनी त्रिविध विशेषताओं के कारण हृदय रोगजन्य फैल्योर व कार्डियम अस्थमा में अत्यंत लाभ करता है । इसकी कार्य प्रणाली कुछ इस प्रकार की है कि यह त्रिदोषों को मिटाकर दुर्बलता का निवारण करता है । अतः यह एक सर्वश्रेष्ठ टॉनिक भी है ।

अन्य उपयोग-
वाह्य प्रयोगों में शोथ रोगों में इसके पत्रों का स्वेदन व लेप भी करते हैं । नेत्र रोगों में स्वरस लाभकारी होता है । अतः प्रयोगों में अग्निमंदता, वमन, पीलिया रोग के लिए इसे सफलता से प्रयोग किया जाता है । स्रियों के रक्त प्रदर रोगों में यह लाभकारी है । पेशाब की जलन, पथरी तथा पेशाब के मार्ग में संक्रमण के कारण उत्पन्न ज्वर में भी यह तुरंत लाभ पहुँचाती है । सभी प्रकार के सर्प विषों का यह एण्टीडोट है । श्वेत पुनर्नवा का ताजा भाग इसी कारण आपात्कालीन उपचार हेतु हमेशा पास रहना अधिक उपयुक्त है ।
यह एक रसायन है एवं बलवर्धक टॉनिक भी । अतः रोग निवारण के बाद कमजोरी दूर करने के लिए इसे प्रयुक्त किया जाता है । विशेषकर महिलाओं के लिए सर्वश्रेष्ठ पुष्टिवर्धक माना जाता है ।




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