जड़ीबूटियों द्वारा चिकित्सा

सुष्ठी (जिंजिबर आफिसिनेल)

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इसे शुष्क होने से शुण्ठी, अनेक विकारों का शमन करने में समर्थ होने के कारण महौषधि, विश्व भेषज भी कहा जाता है । कच्चा कंद अद्रक नाम से घरेलू औषधि के रूप में सर्वविदित है ।

वानस्पतिक परिचय-
इसका क्षुप वर्षायु होता है । कोमल कंद युक्त यह पौधा 2 से 4 फुट ऊँचा होता है । पत्र बांस के पत्तों के समान, स्निग्ध, 1 से 2 फुट लंबे व 1 इंच चौड़े होते हैं । अग्र भाग पर नुकीले होते हैं, पुष्प ध्वज लगभग 3 इंच लंबा होता है, जिसमें 8-10 इंच लंबे पुष्प दण्ड हरापन लिए पीले पुष्प लगते हैं । ये बैगनी ओष्ठयुक्त होते हैं । पुष्प वर्षा तथा शरद में आते हैं । कन्द सुगंधित, बहुखण्डी, हल्का पीलापन लिए होता है । यही भौमिक काण्ड औषधि कार्य हेतु प्रयुक्त होता है ।सारे भारत में समशीतोष्ण जलवायु प्रधान क्षेत्रों में यह आसानी से पैदा हो जाता है । उष्ण और आद्र प्रदेशों यथा-केरल, उड़ीसा, कर्नाटक में इसकी खेती होती है । हिमालय से कन्याकुमारी तक यह पाया जाता है व बाजार में सूखे रूप में सौंठ के नाम से बिकता है ।

पहचान तथा मिलावट-
भौमिक काण्ड कई बार रोग ग्रस्त होता है अतः स्वस्थ भाग की पहचान करना अत्यावश्यक है । बाजार में उपलब्ध सौंठ लगभग 5 सेण्टीमीटर लंबी, चपटी, मटमैली सी होती है । तोड़ने पर सूखे कंद तुरंत टूटते हैं एवं टूटे तल पर अनेकों रेशे निकले दिखाई देते हैं । स्वाद में यह तीखी होती है एवं इसमें अनेकों रेशे होते हैं ।

सुखाने की विधि तथा रासायनिक क्रिया से गुजारे जाने के क्रमानुसार इसके गुण अलग-अलग होते हैं । बहुधा सौंठ तैयार करने से पूर्व अदरख को छीलकर सुखा लिया जाता है । परंतु उस छीलन में सर्वाधिक उपयोगी तेल (इसेन्शयल ऑइल) होता है, छिली सौंठ इसी कारण औषधीय गुणवत्ता की दृष्टि से घटिया मानी जाती है । वेल्थ ऑफ इण्डिया ग्रंथ के विद्वान् लेखक गणों का अभिमत है कि अदरक को स्वाभाविक रूप में सुखाकर ही सौंठ की तरह प्रयुक्त करना चाहिए । तेज धूप में सुखाई गई अदरक उस सौंठ से अधिक गुणकारी है जो बंद स्थान में कृत्रिम गर्मी से सुखाकर तैयार की जाती है । कई बार सौंठ को रसायनों से सम्मिश्रित कर सुन्दर बनाने का प्रयास किया जाता है । यह सौंठ दीखने में तो सुन्दर दिखाई देती है, पर गुणों की दृष्टि से लाभकर सिद्ध नहीं होती है ।

संग्रह, संरक्षण, भेद-
औषधीय प्रयोजनों के लिए अदरख को तब एकत्र किया जाता है जब फूल समाप्त हो जाएँ तो तना सूख जाए । शुष्क कंद को वायु धूल रहित अनाद्र स्थान में मुख मंद पात्रों में रखते हैं ।
बांस के टुकड़े से छिलका हटाकर पानी से धोकर छाया में सुखायी गयी तथा 8-10 दिन बाद गाढ़े चूने के पानी में डुबाकर, धूप में सुखाकर चमकीली बनायी गई सौंठ सर्व प्रचलित है, पर यह विधि-विधान की दृष्टि से गलत है । सौंठ हमेशा धूप में स्वाभाविक रूप में सुखाई जानी चाहिए । व्यापारी भेद से कई प्रकार की शुण्ठी प्रचलित हैं एवं वानस्पतिक भेद से भी जापानी व जरेब्मेट ये 2 भेद माने जाते हैं । भारतीय मानकों के अनुसार सूखी अदरख 2 सेण्टीमीटर की हो, हल्के भूरे रंग की सूत्रयुक्त त्वचायुक्त हो, इसकी गंधा तथा स्वाद में कोई विकृति न हो ।

कालावधि गुण-
सुखाए गए कंद को 1 वर्ष से अधिक प्रयुक्त न किया जा । यदि इस बीच नमी आदि लग जाती है तो औषधि अपने गुण खो देती है । अतः यथासंभव अनाद्र स्थिति में रखा जाए ।

गुण-कर्म संबंधी विभिन्न मत-
पुरातन और अर्वाचीन आयुर्वेदिक साहित्य में हर स्थान पर सौंठ को वात नाड़ी संस्थान पर समर्थ क्रिया करने का वर्णन मिलता है । सारे शरीर के संगठन को सुधारने वाली यह घरेलू औषधि आयुर्वेद में विश्व भैषज नाम से जानी जाती है ।
आचार्य सुश्रुत ने इसकी महत्ता बताते हुए पिपल्यादि और त्रिकटुगणों में इसकी गणना की है । भाव प्रकाश निघण्टु में इसे समर्थ आमवात नाशक बताया गया है । इसे बहुगुणी मानते हुए विधाता प्रदत्त एक बहुमूल्य औषधि कहा गया है ।
श्री भण्डारी वनौषधि चंद्रोदय में लिखते हैं कि यह शरीर संस्थान में समत्व स्थापित कर जीवनी शक्ति और रोग प्रतिरोधक सामर्थ्य को बढ़ाती है । हृदय श्वांस संस्थान से लेकर वात नाड़ी संस्थान तक यह समस्त अवयवों की विकृति को मिटाकर अव्यवस्था को दूर करती है ।

डॉ. देसाई के अनुसार उष्ण और वात नाशक धर्म के कारण सौंठ सब प्रकार की वाज जनित वेदनाओं में लाभकारी सिद्ध हुई है । जीर्ण संधि वात के रोगियों, विशेषकर वृद्ध पुरुषों को यह अधिक आराम देती है । कर्नल चौपड़ा लिखते हैं कि 'जिंजर टिंक्चर' का प्रयोग एक प्रकार के मादक द्रव्य के नाते नहीं, वरन् उसकी वात नाशक क्षमता के कारण ही किया जाता है । पाश्चात्य जगत में सर्दियों में इसे विशेष रूप से प्रयुक्त किया जाता है ।
श्री नादकर्णी के अनुसार शुण्ठी सायिटिका की सर्वश्रेष्ठ औषधि है, क्योंकि यह गर्म है । गाउंट व पुराने गठिया रोग में यह अत्यन्त लाभदायक है । पुराने वात रोग में सौंठ के गरम काढ़े को पीकर चिकित्सा करने का चिरपुरातन विधान चला आया है एवं पुरातन ग्रंथों में इसका वर्णन सभी प्रकार के जोड़ों, मांसपेशियों के चिकित्सा प्रयोगों में मिलता है ।

रासायनिक संरचना-
ताजी अदरख में लगभग 80 प्रतिशत जल होता है, जबकि सुखाकर सौंठ बनाने पर जल की मात्रा लगभग दस प्रतिशत रह जाती है । फलस्वरूप शेष सक्रिय घटक और भी अधिक सघन सान्द्र होकर औषधि कार्य के लिए उपलब्ध हो जाते हैं । इस जल तत्व के अतिरिक्त शेष अन्य घटक इस प्रकार हैं-प्रोटीन 12.4 प्रतिशत, रेशा 7.2 प्रतिशत, स्टार्च 5.3 प्रतिशत, एश 6.6 प्रतिशत, इसेन्शियल ऑइल 1.8 प्रतिशत, अन्य पदार्थ जिनमें औथियोरेजिन आदि प्रमुख हैं ।

सौंठ में 1.6 से 2.44 प्रतिशत नाइट्रोजन होती है जिनमें से दो तिहाई प्रोटीन्स के रूप में होती है । ये एल्ब्यूमिन, ग्लोब्युलि, प्रोतामिन और ग्लूटामिन नाम से व सूक्ष्म रूप में थ्रिओनिन नाम से पाए जाते हैं । प्रोटीनों के अतिरिक्त मुक्त अमीनो अम्ल भी हैं- यथा ग्लूटेमिक एसिड, एस्पार्टिक एसिड, सीरीन, प्लाइसीन थ्रीयोविन, ऐलेनीन अर्जीनीन, बेलीन, फिनाइल एलेन, एस्पेरेजीन, लायसीन, सीस्टीन, हिस्टीडीन, ल्यूसीन्स प्रोलीन एवं पाइकोलिक एसिड ।

कार्बोहाइड्रेटों में स्टार्च के अतिरिक्त ग्लूकोस, फ्रूक्टोस, सुक्रोस, रैफीनील आदि भी सौंठ में पाए जाते हैं ।
सौंठ में पायी जाने वाली सुगंध का मूल कारण उसका उत्पत तेल (इसेन्शियल ऑइल) है । विशेष बात यह है कि यह तेल सौंठ की बाह्य त्वचा पर ही अधिकतर मात्रा में होता है । इसे छीलकर फेंक देने से सौंठ के गुण बहुत घट जाते हैं । यह तेल हल्के पीले रंग का होता है । इस तेल में 50 प्रतिशत तो सेस्क्वीटर्पीन हाइड्रोकार्बन होता है, जिसे जिंजीवरीन नाम दिया गया है और शेष अल्कोहल सत्व को जिंजीबराल । यदि 6 माह से अधिक सौंठ को रखा जाए तो इसके अधिकांश घटक नष्ट हो जाते हैं । इस तेल के अतिरिक्त सौंठ में ओलियोरेसिन भी पाया जाता है जो बहुत तीव्र गंध का होता है । इसमें जिंजीरल तथा भोगाल नामक अति तीव्र गंध का तेल भी निकाला गया है । सौंठ में पायी जाने वाली एश में कैल्शियम, फाल्फो रस, लोहा, आयोडीन आदि पाए गए हैं तथा मज्जा में थाअमीन (0.06 मिलीग्राम प्रतिशत) राइबोफलेबिन (0.03 मिलीग्राम प्रतिशत) नायसिन (0.6 मिलीग्राम प्रतिशत) विटामिन सी (6 मिलीग्राम प्रतिशत) तथा कैरोटीन (40 माइक्रोग्राम प्रतिशत) जैसे विटामिन भी विद्यमान हैं । सचमुच सौंठ की रासायनिक संरचना बड़ी अद्भुत विलक्षण है ।

आधुनिक मत एवं वैज्ञानिक प्रयोग निष्कर्ष-
सौंठ में प्रोटिथीलिट इन्जाइम्स की प्रचुरता है । शरीर संगठन-होमीयोस्टेसिस एन्जाइम्स व आयान्स के संतुलन पर टिके हैं । अपने इस गुण के कारण यह जीवनी शक्ति वर्धक, नाड़ी संस्थान के लिए उत्तेजक एवं वात शामक औषधि बतायी जाती है ।
वैज्ञानिकों का मत है कि प्रोटिथीलिटिक एन्जाइम क्रिया के कारण ही यह कफ मिटाती है तथा पाचन संस्थान में शूल निवारण दीपन की भूमिका निभाती है । जीवाणुओं के ऊपर भी इसी क्रिया द्वारा तथा जीवनी शक्ति बढ़ाकर यह रक्त शोधन करती है ।

यूनानी चिकित्सा में यह जिंजीवर नाम से जानी जाती है तथा तीसरे दर्जे में गरम व दूसरे में खुश्क है । इसे वातानुलोमक मानकर कई योगों में युनानी वैद्य प्रयुक्त करते हैं । हकीमों के अनुसार जीर्ण संधिशोध में एक तोला सौंठ नियमित रूप से रात्रि को शयन के समय लेने से रोग शीघ्र ही मिट जाता है ।
श्री फैज ने होम्योपैथी में सबसे पहले इस औषधि का प्रयोग पहली से लेकर छठी पोटेन्सी तक किया व जोड़ों के पुराने रोगियों को दर्द से मुक्ति दिलायी ।

ग्राह्य अंग-
भौमिक कंद ।

मात्रा-
शुण्ठी चूर्ण 1 से 2 ग्राम । अदरक स्वरस- 5 से 10 मिलीलीटर । इसका अर्क एवं शरबत भी एक से तीन तोला की मात्रा में प्रयुक्त होता है ।

निर्धारणानुसार उपयोग-
शुण्ठी एक उत्तम कोटि की आम पाचक, वात नाशक औषधि है । अतः सात्मीकरण होमियोस्टेसिस लाने के लिए प्रयुक्त होने वाली बहु प्रचलित घरेलू औषधि है । सभी प्रकार की जोड़ों की व्याधियों में रात्रि में सोते समय एक तोला शुण्ठी फाण्ट रूप में नियमित देना चाहिए । कटिशूल (लम्बेगो) स्लिप्डडीस्क आदि में इसकी इतनी ही मात्रा चूर्ण रूप में मधु के साथ ली जानी चाहिए । संधिशोध में इसे गुड़ के अनुपान से प्रयुक्त करने का विधान बताया गया है । साइटिका के रोगी को तो आराम पहुँचाती ही है । अधिक पीड़ा होने पर एक और बीस के अनुपात में बनाया गया शुण्ठी क्वाथ 30 से 60 ग्राम प्रति घंटे लिया जा सकता है । संधिशोध में बाह्य लेप के रूप में भी इसे प्रयुक्त करते हैं ।

अन्य उपयोग-
अरुचि, उल्टी की इच्छा होने पर, अग्नि मंदता, अजीर्ण एवं पुराने कब्ज में यह तुरंत लाभ पहुँचाती है । यह हृदयोत्तेजक है । जो ब्लड प्रेशर ठीक करती है तथा खाँसी, श्वांस रोग, हिचकी में भी आराम देती है । कफ निस्सारक है अतः क्रोनिक ब्र्रोंकाईटिस आदि में तो विशेष लाभकारी है । विषम ज्वरों में शुण्ठी चूर्ण मिश्री, मधु, जल के अनुपात से प्रयुक्त करने पर ज्वर तुरंत उतर जाता है । सामान्य दुर्बलता में भी अति लाभकारी है विशेषकर प्रसवोत्तर दुर्बलता में ।

यह एक गर्म औषधि है, अतः इसका प्रयोग कुष्ठ व पीलिया रोग, शरीर में कहीं भी रक्तस्राव होने की स्थिति तथा ग्रीष्म ऋतु में नहीं किया जाना ही उचित है ।




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