पातंजलि योग का तत्त्व- दर्शन

असन्तोष की अवांछनीय मनःस्थिति

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सन्तोष को आध्यात्मिक सद्गुणों में महत्त्वपूर्ण माना गया है। "सन्तोषी सर्वदा सुखी" की उक्ति में यह रहस्य समाहित है कि असन्तोषी को सदा दुःख दरिद्र में घिरा रहना पड़ता है। जबकि सन्तोषी को किसी बात की कमी अनुभव नहीं होती और न वह दरिद्र अभावग्रस्तों की तरह बेचैन फिरता है।

सन्तोष से अभिप्राय सन्तुलन से है। मन को असन्तुलित बनाने में यों आवेशों को प्रमुख माना जाता है, पर वे देर तक ठहरते नहीं। दूध सदा उफनता नहीं रहता। उसकी एक तरंग आती है और जितना भी दूध को पतीली से बाहर निकाल सकती है निकाल देती है। प्रेम और द्वेष के दोनों ही आवेश ऐसे हैं जो समय की गति के साथ ढीले पड़ने लगते हैं। उनमें स्थायित्व रहता तो मित्र सम्बन्धियों का बिछोह होने पर उस उद्विग्नता से घिरे रहकर लोग दम तोड़ देते इसी प्रकार मिलन की खुशी भी देर तक नहीं टिकती। विवाह के दिन जिस नये जोडे़ में जो उत्साह होता है प्रेम उफन पड़ता है वह कुछ दिन के बाद सामान्य पति- पत्नी के रूप में धरातल पर आ जाता है। इस प्रकार वैर विरोध भी कालान्तर में ढीला पड़ता जाता है। घनिष्ठ मित्रों के दूर चले जाने पर वह मैत्री भी सामान्य जान- पहचान जैसी रह जाती है। उद्विग्नता प्रिय या अप्रिय किसी भी स्तर की हो, समय के झोंके लगने से ठंडी हो जाती है। ज्वार- भाटे की तरह, रात दिन की तरह प्रिय, अप्रिय प्रसंगों से उत्पन्न होने वाले भले- बुरे उभार समयानुसार उबलते और शान्त होते रहते हैं, पर असन्तोष एक ऐसा रोग है जो हर घडी़, हर स्थिति में एक- सा बना रहता है और मनुष्य को चैन से नहीं बैठने देता।

असन्तोष का विश्लेषण करने पर प्रतीत होता है कि वह अवास्तविकता स जुडी़ हुई एक कल्पित भ्रान्ति है। जिसका आदी बन जाने पर मस्तिष्क एक खास ढंग से सोचते रहने का आदी बन जाता है। वह बहुत चाहता है। बहुत बडा़ बनना चाहता है। बहुतों पर स्वामित्व जमाना चाहता है। प्रशंसा के पुल बाँधने और उस पर दौड़ लगाते रहने की ललक निरन्तर उस पर सवार रहती है। यह तृष्णा ही परिपक्व होकर ऐसे असन्तोष का रूप धारण कर लेती है जिसे सहज छुड़ाया जाना कठिन पड़ता है।

मनुष्य की वास्तविकता आवश्यकताएँ बहुत सीमित हैं। पेट भरने को रोटी, तन ढकने को कपड़ा और रहने को छाया का प्रबन्ध कर लेना इतना कठिन नहीं है, जिसके लिए दिन- रात लगा रहना पडे़ और फिर भी पूर्ति न हो पाये। वस्तुतः यह सारा प्रबन्ध कुछ ही घण्टे परिश्रम कर लेने पर, बदले में इतना उपार्जन हो सकता है जिससे निर्वाह का ढर्रा सहज की घूमता रह सके। सम्बन्धित परिवार को भी यदि स्वावलम्बी सुसंस्कारी बनने की आरम्भ से ही प्रेरणा दी जाती रहे तो वे भी कुछ ही समय में अपने पैरों पर खडे़ रहकर जीवन की नाव को अपने बलबूते खींच सकने में समर्थ हो जाते हैं। सन्तानोत्पादन के कुचक्र में जानबूझकर पैर न फँसाये जायें तो पति- पत्नी का जीवन एक- दूसरे की सेवा सहायता करते हुए बडी़ प्रसन्नता और सुविधा के साथ बीत सकता है। आफत तब आती है, जब बच्चों को सुयोग्य बनाने के लिए आवश्यक धन, समय और वातावरण न होने पर भी आँखें बन्द करके प्रजनन में प्रवृत्त रहा जाना है और इतना भार सिर पर चढा़ लिया जाता है जिसे बेढंगे तरीके से ढोते रहने में ही सारी जिन्दगी बीत जाती है। फिर भी अपने को बच्चों से और बच्चों को अपने से असन्तोष ही बना रहता है। कर्तव्य की उपेक्षा और अधिकार की प्रबलता होने पर सर्वत्र कलह मचता है। फिर परिवार क्षेत्र ही उससे अछूता कैसे रह सकता है। विशेषतया वे परिवार जो दुर्गुण से घिरे हैं, जिनमें दृष्टिकोण को उच्चस्तरीय रखने की व्यावहारिक शिक्षा नहीं मिली है। अधिकांश परिवारों की स्थिति ऐसी होती है जिनमें मनोमालिन्य छाया रहता है। शिकायतों का सिलसिला आता रहता है। कलह, विग्रह और मनोमालिन्य बना रहता है। इस नरक को जानबूझ कर अपने चारों ओर लपेट लेने में मनुष्य की मूर्खता ही निमित्त कारण है। अन्यथा परिवार को ईश्वरीय उद्योग समझकर माली की तरह उसे कर्तव्य भाव से सींचा जाय, छोटे परिवार को अपना मानने की अपेक्षा विश्व भर, को परिवार मानकर चला जाय तो सेवा साधना तो बन ही पड़ती है साथ ही प्रसन्नता भी कम नहीं रहती।

ठाठ- बाट बनाने में, लोगों की आँखों में धूल झोंककर अपना बड़प्पन जताने में कितने खर्चीले आडम्बर खडे़ करने पड़ते हैं। उनके सरंजाम जुटाने में ही मनुष्य की कमर टूटने लगती है। साथ ही यह भय भी बना रहता है कि योग्यता से अधिक जितना श्रेय समेटा गया है उसकी पोल न खुल जाय और बड़प्पन पाने के बदले अपमान, तिरस्कार, उपहास न सहना पडे़। फिर उस बड़प्पन से क्या लाभ जो बिजली की तरह क्षण भर कौंध कर दूसरे ही क्षण विस्मृति के गर्त में चला जाय। यदि "सादा जीवन उच्च विचार" की नीति बनाई जाय, औसत नागरिक स्तर का रहन- सहन अपनाया जाय तो उस स्वाभाविकता की स्थिति में सदा सन्तोष बना रह सकता है। निर्वाह भी ठीक प्रकार हो सकता है और आजीविका उपार्जन के उपरान्त बचे हुए समय में सद्ज्ञान, संकल्प एवं सत्प्रवृत्ति संवर्धन में लगकर विपुल प्रसन्नता अर्जित करते रहा जा सकता है। भौतिक दृष्टि से सीमित और आत्मिक दृष्टि से असीम बनने की आकांक्षा ऐसी है जिसे सहज पूरा किया जा सकता है और सन्तोषपूर्वक अपना समय बिताया जा सकता है।

सन्तोषी बनने का अर्थ अनुत्पादक या आलसी बन बैठना नहीं है। पुरुषार्थ तो हर क्षेत्र में किया जाना चाहिए। अर्थ उपार्जन के लिए भी किन्तु साथ ही यह भी ध्यान रखा जाय कि सादगी से खर्च चलाने के उपरान्त जो बचत हो उसका उपयोग समाज से पिछड़ापन दूर करने एवं सत्प्रवृत्तियों को सुविस्तृत करने के निमित्त ही लगाया जाय। ऐसी दशा में वह अर्थ उपार्जन भी पुण्य परमार्थ का प्रतीत ही बन जाता है। उस स्थिति में जितनी कमाई बन पडे़ उतने से ही सन्तोष बना रह सकता है।

असन्तोष अधिकाधिक परमार्थ करने, व्यक्तित्व को अधिकाधिक सद्गुणों से सम्पन्न करने के लिए बना रहे तो हर्ज नहीं। वैसी आकांक्षा तो आत्मिक प्रगति की निशानी है। यह आत्मिक भूख जब विकृत होती है तो वासना, तृष्णा, अहंता, ममता के रूप में फूटती है और जल्दी से बहुत कुछ समेट लेने की आतुरता में कुकर्म करने के लिए प्रेरणा भरती है। उसी व्याकुलता में कस्तूरी के हिरन जैसी मृगतृष्णा में प्राणी भटकता है और समुद्र जैसी खाई पाटने में असमर्थ रहने पर सदा ऐसी बेचैनी में फँसा रहता है, जो जलती आग की तरह होती है उसमें जितना ईंधन डाला जाय उतनी ही ज्वलन्त होती है।

वैभव बटोरने की ललक आमतौर से मनुष्य को अधिक असन्तुष्ट रखती है। उसी की पूर्ति कठिन पड़ती है। सामान्यतया निर्वाह में कमी पड़ने पर दरिद्रता- जन्य असन्तोष पाया जाता है। इसे पुरुषार्थ जगाकर सरलापूर्वक पूरा किया जा सकता है। सृष्टि के सभी प्राणी प्रकृति प्रेरणा के अनुरूप सवेरे से शाम तक शरीर रक्षा के लिए पुरुषार्थ करते रहते हैं। वे भूखे उठते तो हैं, पर भूखे सोते नहीं। उनकी अपेक्षा मनुष्य कहीं अधिक साधन सम्पन्न, शरीर बुद्धिबल का स्वामी है। वह अपनी उचित आवश्यकताओं को पूरा न कर सके ऐसा कोई कारण नहीं, जिसके कारण मनुष्य को अभावग्रस्त रहना पडे़। इस मार्ग में आलस्य और प्रमाद भी दो बडी़ बाधाएँ हैं, जिन्हें चाहे मनुष्य स्वयं को सरलतापूर्वक दूर कर सकता है।

रोगी, अपंग, बालक, व्रद्ध आदि को अवश्य अधिक असुविधा का सामना करना पड़ता है, पर ऐसे लोग कम ही होते हैं और वे चाहें तो सहनशीलता अपनाकर, अपने से अधिक दुःखियों के साथ अपनी तुलना करने, उदार चेताओं का सहयोग अपनी विनम्रता एवं मिठास के द्वारा आकर्षित करके उस स्थिति में भी लगभग वैसी मनःस्थिति में रह सकते हैं जिसे सन्तोष से प्रभावित कहा जा सके।

तप साधना का परम पुरुषार्थ-
कच्ची मिट्टी के बने घडे़ में पानी भर देने पर वह कुछ ही घंटों में गीला होकर बिखर जाता है, पर यदि उसे आँवे में पका लिया जाय, तो मजबूत होकर मुद्दतों काम देता है। यह तपाने का चमत्कार है। धातुओं का शोधन भी इसी प्रकार होता है। वे जमीन से मिट्टी मिली हुई स्थिति में निकलती हैं। उस स्थिति में वे किसी काम में लाये जाने योग्य नहीं होतीं। उन्हें भट्टी में डालकर पिघलाया जाता है, तब शुद्ध धातु सामने आ जाती है। कचरा जलकर अलग हो जाता है। यदि इस प्रक्रिया से डरा या बचा जाय, तो धातुओं का विशालकाय परिकर निकम्मा ही पडा़ रहेगा और उनसे कोई उपयोगी उपकरण बन न सकेगा।

कच्ची मिट्टी से बने मकान बरसात आने पर घुल या ढह जाते हैं, पर यदि उन ईंटों को पकाकर इमारत बनाई जाय तो वह मुद्दतों यथावत् खडी़ रहती है। व्यंजन, मिष्ठान्न चूल्हे की अग्नि पर चढ़ने के बाद ही बनते हैं। आयुर्वेदीय औषधियों में रस, भस्में अग्नि संस्कार से ही बनते हैं। शोधन, जारण, मारण, अर्क, अवलेह आदि का निर्माण भी अग्नि सान्निध्य में ही होता है।

सूर्य ग्रीष्म में तपता है, तो समुद्र से बादल बनते हैं और घनघोर घटा बनकर भूमि को मखमली हरीतिमा से भरते हैं। तपस्वी योग साधते हैं और उस तितीक्षा के आधार पर प्रसुप्त शक्ति केन्द्रों को जागृत करते हैं। गुरुकुलों में छात्रों को कठोर जीवन की संयम साधना कराई जाती है। इसी के बलबूते वे प्रचंड पराक्रम करने में समर्थ नर- रत्न बनते हैं।

तप की महिमा अपार है। कष्ट सहिष्णुता का अभ्यास जब महान उद्देश्य की पूर्ति के लिए किया जाता है, तो तपस्या कहते हैं। यह भौतिक प्रयोजनों के लिए भी की जा सकती है और अध्यात्म प्रयोजनों के लिए भी। जो वृक्ष कठोर परिस्थितियों में उगते और बढ़ते हैं, वे पर्वत शिखरों पर भी हरियाते हैं। आँधी- तूफानों से टकराते हैं, किन्तु बगीचों की शोभा बढा़ने वाले फूल तनिक- सी सर्दी- गर्मी की प्रतिकूलता आते ही छुई- मुई की तरह कुम्हलाते हैं। अमीरों की सुविधाएँ उन्हें निष्क्रिय दुर्व्यसनी बनाती हैं, पर जो खदानें खोदते हैं, उन श्रमिकों की कलाईयाँ मजबूत और छातियाँ तनी रहती हैं। कठिनाइयों में पलने वाले बडे़ पराक्रम करते देखे जाते हैं, पर जिनका पालन फूलों के पालने में हुआ है, उन्हें जमीन पर पैर रखते चुभन होती है। कठिनाइयों का सामना करने का तो उनमें दम ही नहीं होता, हर मौसम उनके प्रतिकूल पड़ता है। मौसमी बीमारियाँ एक प्रकार से उन्हें अपना स्थायी यजमान बना लेती हैं। श्रम से दूर रहने वाली महिलाओं को प्रसव के समय प्राण लेवा कष्ट सहना पड़ता है। कई बार तो वे इस प्रसंग में अपने प्राण तक गँवा बैठती हैं, जब कि गाडि़या लुहारों की लोह पीटने वाली महिलाएँ इस प्रकार जननी बन जाती हैं, मानों कुछ असाधारण जैसा हुआ ही न हो। दो चार दिन भी इस बडे़ काम से छुट्टी तक नहीं लेतीं। तुलनात्मक अध्ययन करने से पता चलता है कि निरोगता और दीर्घ- जीवन की कुँजी श्रमशीलता के साथ जुडी़ हुई है। वनवासी कोल- भील तीर से चीते को गिरा देते हैं, जब कि उन्हें न तो पौष्टिक भोजन मिलता है और न सुविधा भरे साधनों को वे उपलब्ध कर पाते हैं।

प्रगति पथ पर अग्रसर होने वाले प्रत्येक व्यक्ति को अपने- अपने ढंग का कठोर श्रम करना पड़ता है। पहलवान, विद्वान, वैज्ञानिक, नायक, कलाकार अनायास ही अपने विषयों में प्रवीण नहीं हो जाते, उन्हें कृषक- मजदूरों की तरह व्यस्त रहना और कठोर श्रम करना पड़ता है।

प्रतिकूलताएँ अनायास ही नहीं हट जातीं, उनसे संघर्ष करना पड़ता है। सैनिकों को मोर्चा जीतने में कठिनाई के साथ जूझने और प्रचण्ड साहस का परिचय देना पड़ता है। आत्मशोधन के लिए अभ्यस्त अनुपयुक्त आदतों को उखाड़ फेंकने में निरत होना पड़ता है। यह प्रसंग धोबी के द्वारा कपडे़ धोये जाने के सदृश्य है। मैला कपड़ा जब गरम भट्टी में उबलता है और डंडे की पिटाई सहता है, तभी उसे भकाभक चमकने का अवसर मिलता है। मात्र पानी में निचोड़ देने पर सफाई कहाँ आती है। बर्तनों पर पत्थरों की घिसाई से ही चमक आती है।

अनीति से जूझने वालों को उनके प्रहार सहने पड़ते हैं, जिनके स्वार्थों को चोट पहुँचती है। सुधारकों में से अनेकों को शहीद होना पडा़। देव- दानव युद्ध, में प्रथम आक्रमण करने वाले दैत्य जीतते और देव हारते रहे हैं, क्षति देवताओं को ही अधिक उठानी पड़ती रही हैं, भले ही अन्त में सत्य की विजय होने वाली उक्ति सार्थक हुई हो और देवत्व को जीतने का श्रेय मिला हो।

आक्रमण से भयभीत होकर यदि देवताओं ने पीठ दिखाई होती तो फिर उनका कोई ठिकाना न रहता। सदा सर्वदा के लिए पराजित होकर रहना पड़ता।
भ्रूण को उदरदरी से बाहर निकलने के समय प्रचण्ड पुरुषार्थ करना पड़ता है। उस समय का दृश्य खून- खच्चर से भरा होता है। इसके बिना स्वच्छ हवा और उन्मुक्त आकाश के नीचे विकसित होने का सुयोग न मिलता भ्रूण की स्थिति में पडा़- पडा़ ही सड़ जाता। मुर्गी के अण्डों में बन्द- चूजे थोडी़ सामर्थ्य अर्जित करते हैं तो बाहर निकलने के लिए हलचल मचाना आरम्भ करते हैं। ऊपर के कठोर कलेवर में इसी आधार पर दरार पड़ती है और चूजा निकल कर बाहर आता है, अन्य जीवधारियों की तरह अपने स्वतन्त्र अस्तित्व का परिचय देता है। यह संघर्ष अध्यात्म की भाषा में तप कहा जाता है। तप का अर्थ है, तपना। तपने पर हर वस्तु निखरती है। सोने को तपाये जाने पर ही उसके खरे- खोटे होने की परख होती है। चाकू को पत्थर की चरखी पर घिसते हैं, तभी उसकी तेज धार निखरती है।

कीर्तिमान स्थापित करने वाले पर्वतारोही, घुड़सवार जान की बाजी लगाते हुए कदम बढा़ते हैं। प्रतियोगिता जीतने वाले खिलाडी़ भी अपने पौरुष का चरम परिचय देते हैं। विजयश्री का वरण कर सकना उन्हीं के लिए सम्भव हुआ है, जिन्होंने अपनी वरिष्ठता का परिचय दिया है। डरते रहने वाले, कायरता अपनाने वाले भयभीत लोग अपेक्षाकृत अधिक हानि उठाते हैं। आक्रमणकारी उनकी मनःस्थिति ताड़कर अधिक निश्चिन्ततापूर्वक अधिक गहरा आक्रमण करते हैं। तनकर खडे़ हो जाने वाले रीछ- वानरों ने लंका के दुर्दान्त दैत्यों को परास्त करके रख दिया था।

यमराज ने एक बार मौत को एक क्षेत्र से पाँच हजार आदमी मार लाने के लिए भेजा। वह जब झोली भरकर लायी तो गिनने पर वे पन्द्रह हजार निकले। जवाब- तलब हुआ कि इतने अधिक क्यों? मौत ने सबूत समेत सिद्ध किया कि बीमारी से तो पाँच हजार ही मरे हैं। शेष तो डर के मारे बिना मौत मर गए और परलोक आने वाली भीड़ के साथ जुड़ गए। कहा जाता है कि साहसी जीवन में एक बार मरता है, पर कायर तो भयभीत रहकर पग- पग पर, पल- पल पर मरता रहता है।

हीरा एक प्रकार से कोयला ही है। खदान में जिसे अधिक तापमान सहना पड़ता है, वही कोयला हीरा बन जाता है। सच्चाई और बहादुरी की यथार्थता जाँचने की एक ही कसौटी है कि प्रलोभन और दबाव के आगे झुका गया या नहीं। जो तनकर खडा़ हो जाता है, उसकी हिम्मत देखकर मुसीबत भी डर कर वापस लौट जाती है।

योगीराज तपश्चर्या के बल पर ही ऋद्धि- सिद्धियों का वरण करते हैं। सप्त ऋषि इतने ऊँचे पद पर इसी आधार पर पहुँचे। भगीरथ ने गंगा को भूमि पर लाने में और पार्वती ने शिव से विवाह करने में सफलता पायी। देवताओं को तपस्वी दधीचि की हडिड्याँ माँगकर इन्द्रवज्र बनाना पडा़। तपस्वी देवताओं से बडे़ होते हैं, वरदान के लिए उन्हें ही स्वर्ग से धरती पर आना पड़ता है।

विशेष प्रयोजन के लिए विशिष्ट व्यक्ति, विशेष प्रकार की तप- साधना करते हैं, पर सर्वसाधारण के लिए उसका सरल उपाय एक ही है कि उच्च उद्देश्यों की पूर्ति के लिए संयम साधना एवं परमार्थ प्रयोजनों के लिए कष्ट सहने, पुरुषार्थ करने के लिए समग्र साहसिकता के साथ प्रयत्नशील रहें, अनीति के साथ संघर्ष में आपत्ति सहने के लिए भी।
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