भारतीय संस्कृति के आधारभूत तत्व

सत् अध्ययन आत्मा-उत्थान का आधार

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ऋषियों ने ''तमसो मा ज्योतिर्गमय' का संदेश देते हुए मनुष्यों को अज्ञान की यातना से निकलने के लिए ज्ञान प्राप्ति का पुरुषार्थ करने के लिए कहा है ।। भारत का अध्यात्म- दर्शन ज्ञान- प्राप्ति के उपायों का प्रतिपादक है ।। अज्ञानी व्यक्ति को शास्त्रकारों ने अन्धे की उपमा दी है ।। जिस प्रकार बाह्म नेत्रों के नष्ट हो जाने से मनुष्य भौतिक जगत की निर्भान्त जानकारी नहीं हो पाती ।। बाह्य- जगत के समान मनुष्य का एक आत्मिक जगत भी है, जो कि ज्ञान के अभाव में वैसे ही अँधेरा रहता है, जैसे आँख के अभाव में यह संसार ।।

अंधकार से प्रकाश और अज्ञान से ज्ञान की ओर जाने में मनुष्यों के प्रमुख पुरुषार्थ माना गया है ।। जिस प्रकार आलस्यवश दीपक न जलाकर अंधकार में पड़े रहने वाले व्यक्ति को मूर्ख कहा जायेगा ।। उसी प्रकार प्रमादवश अज्ञान दूरकर ज्ञान के लिए प्रयत्न न करने वाले को मूर्ख ही कहा जायेगा ।। भारतवर्ष की महिमामयी संस्कृति अपने अनुयाइयों को विवेकशील बनने का संदेश देती है अथवा अन्ध- विश्वासी ।।
ज्ञानवान अथवा विवेकशील बनने के लिए मनुष्य का अपने मन- मस्तिष्क को साफ- सुथरा बनाना होगा, उनका परिष्कार करना होगा ।। जिस खेत में कंकड़- पत्थर तथा खरपतवार भरा होगा उसमें अन्न के दाने कभी भी अंकुरित नहीं हो सकते ।। वे तब ही अंकुरित होंगे ।। जब खेत से झाड़- झंखाड़ और कूड़ा- करकट साफ करके दाने बोये जायेंगे ।। उसी प्रकार मनुष्य में ज्ञान के बीज जब तक जड़ नहीं पकड़ सकते ।। जब तक, कि मानसिक एवं नैतिक धरातल उपयुक्त न बना लिया जायेगा ।।

हमारे मन मस्तिष्क में इसी जन्म की ही नहीं, जन्म- जन्मान्तरों की विकृतियाँ भरी रहती हैं ।। न जाने कितने कुविचार, कुवृत्तियाँ एवं मूढ़ मान्यतायें हमारे मन मस्तिष्क को घेरे रहती हैं ।। ज्ञान पाने का अथवा विवेक जागृत करने का लिए आवश्यक है कि पहले हम विचारों एवं संस्कारों को परिष्कृत करें ।। विचार एवं संस्कार परिष्कार के अभाव में ज्ञान के लिए की हुई साधना निष्फल ही चली जायेगी ।।
विचार- परिष्कार का अमोघ उपाय अध्ययन एवं सत्संग को ही बतलाया गया है ।। विचारों में संक्रमण एवं ग्रहणशीलता रहती है ।। जब मनुष्य अध्ययन में निरंतर संलग्न रहता है ।। तब उसको अपने विचार द्वारा विद्वानों के विचारों के बीच से बार- बार गुजरना पड़ता है, पुस्तक में लिखे विचार अविचल एवं स्थिर होते हैं ।। उनमें प्रभावित होने अथवा बदलने का प्रश्न ही नहीं उठता ।। स्वाभाविक है कि अध्ययनकर्त्ता के ही विचार प्रभाव ग्रहण करते हैं ।। जिस प्रकार के विचारों की पुस्तक पढ़ी जायेगी ।। अध्येता के विचार उसी प्रकार ढलने लगेंगे ।। इसलिए अध्ययन के साथ यह प्रतिबन्ध भी लगा दिया गया है कि अध्येता उन्हीं ग्रंथों को अध्ययन करें जो प्रामाणिक एवं सुलझे हुए विचारों वाले हों ।। विचार मस्तिष्क अथवा ज्ञान प्राप्त करने के उद्देश्य से पढ़ने वालों को एक मात्र जीवन एवं निर्माण सम्बन्धी साहित्य का ही अध्ययन करना चाहिए, उन्हें निठल्ले एंव निकम्मे लोगों की तरह निम्न मनोरथ वाले उपन्यास, कहानी, नाटक तथा कविता आदि नहीं पढ़नी चाहिए ।। अश्लील, अनैतिक वासनापूर्ण अथवा जासूसी आदि से भरे उपन्यास पढ़ने से लाभ तो कुछ नहीं ही होना है, उल्टे बहुत अधिक हानि ही होगी ।। अयुक्त साहित्य पढ़ने से विचारों की वह थोड़ी बहुत उदात्तता भी चली जायेगी, जो उसमें रही होगी ।। अध्ययन का तात्पर्य सत्यं शिवं सुन्दरम साहित्य पढ़ने से है ।। सद्विचारों तथा सदुद्देश्य से पूर्ण साहित्य ही पढ़ने योग्य होता है ।। इसके विपरीत अनुपयुक्त एवं अवांछनीय साहित्य का पठन पाठन विचारों को इस सीमा तक दूषित कर देगा कि फिर उनका पूर्ण परिष्कार एक समस्या बन जाएगी ।। आत्मोद्वारक ज्ञान प्राप्त करने के जिज्ञासु व्यक्तियों को तो सत्साहित्य को हाथ भी न लगाना चाहिए ।। सच्ची बात तो यह है कि अयुक्त अवाँछनीय एंव निम्न मनोरंजनार्थ किये गये लिपि लेखन को साहित्य कहा ही नहीं जाना चाहिए ।। यह तो साहित्य के नाम पर लिखा गया कूड़ा- करकट होता है, जिसे समाज के हित- अहित से मतलब न रखने वाले कुछ स्वार्थी लेखक उसी प्रकार लिखकर पैसा कमाते हैं, जिस प्रकार कोई भ्रष्टाचारी खाने- पीने की चीजों में अवाँछनीय चीजें मिलाकर लाभ कमाते हैं ।। व्यावसायिक भ्रष्टाचारी जहाँ राष्ट्र का शारीरिक स्वास्थ्य नष्ट करते हैं, वहाँ अशिव लेखक राष्ट्र का मानसिक, बौद्धिक तथा आत्मिक स्वास्थ्य नष्ट करते हैं ।। मनुष्यों को चारित्रिक तथा आध्यात्मिक क्षति शारीरिक क्षति की अपेक्षा कहीं अधिक भयंकर एवं असहनीय होती है ।।

मनुष्य के लिए विचार परिष्कार एवं ज्ञानोपार्जन के लिए यदि कोई मार्ग रह जाता है तो वह अध्ययन ही है ।। जीवन का अंधकार दूर करना और प्रकाशपूर्ण स्थिति पाकर निर्द्वन्द्व एवं निर्भय रहना यदि वाँछित है तो समयानुसार अध्ययन में निमग्न रहना आवश्यक है ।। अध्ययन के बिना विचार परिष्कार नहीं, विचार- परिष्कार के बिना विवेक और विवेक के बिना ज्ञान नहीं ।। जहाँ ज्ञान, नहीं वहाँ अंधकार होना स्वाभाविक ही है और अँधेरा जीवन शारीरिक, मानसिक तथा आध्यात्मिक तीनों प्रकार के भयों को उत्पन्न करने वाला है जिसमें अज्ञानी न केवल इस जन्म में ही बल्कि जन्म- जन्मान्तरों तक, जब तक कि वह ज्ञान का आलोक नहीं पा लेता त्रिविध तापों की यातना सहता होगा ।। जीवनोद्वार के उपायों में अध्ययन का उपाय सबसे श्रेष्ठ, सरल, सुगम एवं सुलभ है ।। आत्मवान् व्यक्ति को इसे ग्रहण कर भौतिक अज्ञान यातना से मुक्त होना ही चाहिए ।।

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